Monday, February 13, 2012

चार कहानियाँ

हेमंत शेष
१.
घंटी
आज उन्होंने अपने वार्डरोब की सबसे महंगी साड़ी पहनी थी, बाल मेहँदी से रंगे थे, दो बार शैम्पू किया था, दो ही दिन पहले फेशियल करवाया था. सिर पर अशोक के पत्तों से सजे चार घड़े रखे प्राइमरी स्कूली बालिकाओं से तिलक लगवा कर भीड़ के नमस्कार स्वीकारतीं, बेफिक्र दिखने की कोशिश के बावजूद वह अपनी उदासी को छिपा नहीं पा रहीं थी! अपनी पेंतीस साल लंबी राज्य-सेवा से वह आज निष्कलंक रिटायर हो रहीं थी....सजे-धजे मंच पर आसन जमाये अतिथियों को मन मन में गालियाँ देता कर्मचारी-संघ का अध्यक्ष, माइक पर प्रशस्तिपत्र पढ़ रहा था- “....आप के कुशल और प्रेरणादायक नेतृत्व में हमारे दफ्तर ने सफलता की ऐसी-ऐसी अनदेखी ऊंचाइयां छुईं हैं, जिनका आपके कार्यभार संभालने से पहले किसी को गुमान न था! पेंतीस साल तक आपके प्रभावी-मार्गदर्शन में....”
दफ्तर के कई संगठनों उन्हें सम्मानपत्र भेंट किये थे और फूल मालाओं से लाद दिया था.... उनकी चमचमाती सरकारी कार का दरवाज़ा ड्राइवर ने आज और ज्यादा नम्रता से खोला, तीन पी.ए, चार स्टेनोग्राफरों, सात बाबुओं, और ग्यारह चपरासियों ने, एक के बाद एक झुक कर उनके पाँव छुए और वह अपने विदाई-समारोह के प्रभावशाली और गरिमापूर्ण ढंग से निपट जाने पर अभिभूत नज़र आने लगीं!
गुलाब की बड़ी-बड़ी मालाओं से लदीं जब वह घर पहुंचीं. आते ही खुद उन्होंने सम्मान-पत्र करीने से ड्राइंगरूम की शेल्फ में सज़ा दिए, बुके और फूलों के महंगे गुल्दस्ते यथास्थान सलीके से जमा दिए, ए सी चालू किया, और स्थानीय खबर-चैनल पर पर अपने विदाई समारोह की खबर सुनने के लिए टी वी का रिमोट हाथ में ले लिया...वह थकान सी महसूस कर रहीं थीं और उन्होंने चाहा तत्काल कोई एक गिलास पानी उन्हें पिला दे!
उन्होंने रिमोट एक तरफ रख दिया और चपरासी को बुलाने के लिए कोर्डलेस घंटी बजाई.... पर दूसरी दफा घंटी बजाने पर भी जब कोई नहीं आया, तो वह बेचैन नज़र आने लगीं...कुछ पल ठहर कर उन्होंने तीसरी लंबी सी घंटी बजाई. उन्हें बड़ी तिलमिलाहट हुई... दफ्तर के चार माली, दो ड्राइवर और पाँच नौकर उनके पास बरसों से थे, पर सर्वेंट क्वार्टर, बगीचे और पोर्च में सन्नाटा पसरा था... पेंतीस सालों में ये पहली दफा हुआ था कि घंटी बजाने पर भी कोई न आये! ये सोच कर कि शायद लोग आसपास ही कहीं हों, उन्होंने घंटी के बटन पर पैर रख दिया, इस पर भी जब घर में कोई हलचल नहीं हुई तो वह इस दफा अपना पूरा वज़न डाल कर घंटी के बटन पर खड़ी हो गईं.
घंटी की तेज कर्कश आवाज़ पूरे घर में गूँज रही थी....तभी उनके पेट में एक असहनीय दर्दनाक मरोड़ उठी, उनकी कनपटियाँ एकदम लाल हो गयीं, सांस यकायक फूली, सिर बुरी तरह भन्नाया, माथे पर पसीने की धारें बह आईं, दिल एकाएक बेहद जोर से धड़का, और वह- निर्जीव हो कर पेंतीस सालों से ड्राइंगरूम में बिछे महंगे सरकारी गलीचे पर लुढक गईं.....
***
२.
पहाड़
हर गाँव में एक पहाड़ होता है, जो उसी गाँव का पहाड़ कहलाता है. जहाँ आप को पहाड़ दिखे समझ लीजिए, उसकी तलहटी में कोई न कोई गाँव ज़रूर होगा. गांव वाले उसे देखते-देखते उस के इतने आदी हो जाते हैं कि अकसर उसी मौजूदगी को ही भूल जाते हैं, पर पहाड़ इस बात का कभी बुरा नहीं मानता! वह एक बहुत बड़े पुराने हाथी की तरह दृश्य में उपस्थित रहता है. गाँव के बच्चे खेल-खेल में बीसियों दफा इस पर जा चढ़ते हैं. उस पार के गाँव जाने के लिए भी लोगों को इस पर चढ़ना पड़ता है क्योंकि सड़क सड़क जाएँ तो चार किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा, वैसा झंझट कोई मोल लेना नहीं चाहता! औरतें भी ‘उस तरफ’ के बड़े हाट से सौदा-सुलफ लाने के लिए पहाड़ पर चढ़ कर आराम से उतर जाती हैं. अक्सर मवेशी चरते चरते पहाड़ की चोटी तक पहुँच जाते हैं और नीचे गाँव से ये पहचानना मुमकिन नहीं होता कि वे भैंसें किसकी हैं ? तब गाँव के लोगों को पहले अपने बाड़े या गाँव के आसपास जाकर गुमे हुए मवेशी की तलाश में निकलना पड़ता है! वहाँ से निराश हो कर वे फिर पहाड़ की तरफ जाते हैं. वे चोटी पर जा कर अपनी बकरियों को तुरंत पहचान लेते हैं जो ऊँचाई से बेफिक्र वहाँ चर रही होती हैं! उन्हें वहाँ पड़ौसी की सुबह से लापता गाय भी दिख जाती है जिसे वे बड़ी जिम्मेदारी से अपनी बकरियों के साथ ही नीचे उतार लाते हैं! पहाड़ से उतरी हुई गाय पहले जैसी ही होती है, सिर्फ उसकी पूंछ में झडबेरी के कुछ कांटे उलझे नज़र आते हैं, जिन्हें बच्चे तुरन्त निकाल फेंकते हैं. और तब गाय पुरानी गाय जैसी ही लगने लगती है. शाम होते न होते पहाड़ एक बहुत बड़े जंगी जहाज़ की तरह अँधेरे के समुद्र में डूबता नज़र आता है- तब उस पर कोई भी नहीं चढ़ता! झुण्ड बना कर दिशा-मैदान के लिए जाने वाली औरतें भी तलहटी से थोड़ी दूर बैठती हैं. रात को पहाड़ पर कोई लालटेन नहीं जलाता, जैसा हिन्दी कवि मानते हैं! शाम घिरते-घिरते गाँव का यह बहुत पुराना हाथी आँख से ओझल होने लगता है और देखते ही देखते गायब हो जाता है! हर रात लोगों को लगता है- उनके गाँव में कोई पहाड़ है ही नहीं.

-शहरों में ऐसा बिलकुल नहीं होता!

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३.
चौथी तस्वीर
उनका सुनहरा महंगा फ्रेम धुंधला हो कर तीन-चार जगह से चटख गया था, शीशों पर तो इतनी धूल जमा हो गयी थी कि भीतर देख पाना ही नामुमकिन था. पीछे शायद बड़ी-बड़ी मकड़ियों के घर भी थे- जिनसे मुझे बड़ा डर लगता था. सालों से तीनों की झाड़-पौंछ नहीं की गयी थी- दीवाली पर भी नहीं, और वे हमारे हमारे ‘ड्राइंगरूम’ की न जाने कब से शोभा बढ़ा रहीं थीं! एक के बराबर एक लगीं तीन तस्वीरें- जिन्हें दादा पता नहीं कहाँ से लाये थे, दीवानखाने की सबसे सामने वाली दीवार पर इतने ऊपर लगीं थी कि मैं अपने ठिगने कद की वजह से उन्हें ठीक तरह देख भी नहीं पाता था!
मैंने दादा से, घर की सबसे पुरानी इन तस्वीरों के बारे में कई बार पूछा भी, पर कभी उन्होंने मेरे सवाल का कभी जवाब नहीं दिया कि आखिर वे तीन तस्वीरें हैं किन की ? लिहाज़ा, मैंने दादा से पूछना ही छोड़ दिया, पर घर के सबसे महत्वपूर्ण कमरे में इन तीनों की मौजूदगी से, मुझे भीतर ही भीतर जो भयंकर कोफ़्त थी, आखिर तक बनी रही!
पर वह सुबह जिंदगी में मैं शायद कभी नहीं भूल सकता, जब मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था, दादा बेहद उत्तेजित, हाँफते हुए दीवानखाने में आये. उन्होंने बगल में बेलबूटेदार चिकने कागज़ में खूबसूरत लाल सुर्ख रिबन में बंधी एक चौकोर सी चीज़ दबा रही थी. उनका झुर्रियों भरा चेहरा किसी अदम्य उत्साह से दमक रहा था. आते ही उन्होंने, मुझे सब काम छोड़ कर घर की सबसे लंबी स्टूल, जिसे हम मज़ाक में “ ऊँट-कटेली ” कहते थे, आँगन से खींच कर लाने का हुक्म दिया!
मैंने आदेश की फ़ौरन पालना की! दादा आश्चर्यजनक फुर्ती से “ऊँट-कटेली” पर जा चढ़े, दीवार पर टंगी तीनों तस्वीरें उतार कर उन्होंने एक के बाद एक मुझे पकड़ाईं, और नीचे उतर आये.
मैं इतना आश्चर्यचकित था कि बस!
बरसों में वे तीनों तस्वीरें पहली दफा ज़मीन पर उतरीं थीं- पर ताज्जुब.... उनके पीछे न तो मकड़ियों के जाले थे, न काली बड़ी-बड़ी चिकत्तेदार मकड़ियाँ, जिनसे मुझे बेहद डर लगता था ! तस्वीरें जहाँ से उतारी गयी थीं, आसपास की धूल ने दीवार पर बस तीन शानदार फ्रेम बना दिए थे- अपने हमशक्ल. कमरे की दीवारों का रंग-रोगन उड़ जाने की वजह से तस्वीरों के नीचे रहे आये हिस्से, ज्यादा आकर्षक और गहरे दिख रहे थे. असल में वही रंग रहा होगा- हमारे दीवानखाने की दीवारों का- मैंने सोचा और स्कूल जाने का झंझट फ़ौरन छोड़ दिया!
दादा ने कहा – “जानता है, चुनावों के बाद आज चौथी दफा हमारे राज्य के नए राजा बदले हैं! अपने राशन की दुकान पर नए राजाजी की तस्वीरें मुफ्त में बांटी जा रही हैं.....सुनहरे फ्रेम में मंढीं....उन्होंने मुझे भी मांगे बिना- ये दे दी....देख तो सही कैसी शानदार तस्वीर है...पुरानी तस्वीरों की जगह कैसी फबेगी- ये अपने ड्राइंगरूम में...” और दादा ने लाल फीता एहतियात से खोला, चिकना कागज हटाया और मैंने देखा, एक बेहद मंहगे, बेलबूटेदार सुनहरे फ्रेम में जड़ा एक गंजा होता, काले कोट में, टेढी लंबी सी नाक वाला हास्यास्पद सा आदमी मेरे सामने था!
मैं नए मुखिया सूरत देख कर लगभग सन्न रह गया.
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, मुड कर मैं दीवार से उतारी गयी पुरानी तीनों तस्वीरों के पास गया, जोर से फूंक मारी और जेब से रुमाल निकाल कर तीनों को साफ़ कर डाला!
उन तस्वीरों- चारों में वही, वही-हू-ब-हू बिलकुल वही एक गंजा होता, काले कोट में, टेढी लंबी सी नाक वाला हास्यास्पद सा आदमी मेरे सामने था!
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४.
झाड़ू
वह एक कुशल प्रशासक थीं. हर दफ्तर में अपने कामकाज और व्यवहार की नहीं, उन्होंने अपने ‘सफाई-पसंद’ होने की अमिट छाप ज़रूर छोड़ी. जहाँ-जहाँ वह पदस्थापित रहीं, दफ्तर के बाबू और अफसर, सब, रोजमर्रा सरकारी कामकाज की बजाय, साबुनों- डिटर्जेंटों और फिनाइल के प्रकारों, पौंछा लगाने की सही तकनीकों, डस्टर की सही-आकृति, कूड़ेदानों की स्थिति, शौचालय की टाइलों और फर्श की धुलाई वगैरह जैसे गंभीर-विषयों की ही चर्चा किया करते थे. कलफ लगे साफे में एक चपरासी, उनके पीछे-पीछे, एक डस्टबिन लिए चलता था. मजाल क्या, जो एक भी चीज़ यहाँ-वहाँ बिखरी नज़र आ जाए! अगर फर्श पर माचिस की एक बुझी हुई सींक भी नज़र आ जाए तो वह बुरी तरह बिफर जातीं. शौचालय अगर हर दो घंटे बाद एसिड से साफ़ न किये जाएँ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता, रोज सबेरे नौ और शाम चार बजे, दफ्तर के सारे बाबुओं और अफसरों को अपने कमरे में बुला कर वह सफाई के महत्व को ले कर भाषण पिलातीं! एक दिन पता नहीं कहाँ से उन्होंने पढ़ लिया कि “सर्वश्रेष्ठ सफाई-व्यवस्था” के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था, ‘आई एस ओ’ प्रमाणपत्र देने वाली है!
मुकाबला बेहद बड़ा था-कड़ा भी, पर एक अखिल-भारतीय अँगरेज़ ‘आई. सी. एस.’ की तरह उन्होंने चुनौती को स्वीकारा. दफ्तर में आनन-फानन में नए सफाई-कार्मिकों की भर्ती की गयी और तभी से उनका सारा वक्त प्रतिभा और ध्यान इसी तरफ लग गया! शाम को देर तक घर न जातीं, देर रात तक पौंछा वालों की टीम के साथ दीर्घाओं, छतों और कमरों की झाड़ू-बुहारी करवाती रहतीं....पर लोग थे जैसे उन्हें अपने मकसद में कामयाब ही होने देना नहीं चाहते थे! कभी कोई गाँव वाला बीड़ी का ठूंठ फर्श पर फ़ेंक देता तो कभी कोई वकील, बस का पुराना टिकिट या माचिस की खाली डिब्बी! वह घटनास्थल पर भुनभुनाती आतीं और गांधीवादी तरीके से कचरा उठवा ले जातीं! पतझड़ का मौसम तो जैसे जान लेने को आमादा था....हवा के साथ टहनियों से टपके भूरे-पीले पत्ते गिरते रहते और यहाँ वहाँ उड़ते-फिरते. उन्हें ठिकाने लगाने के लिए वह साड़ी चढ़ा कर उनके पीछे दौड़तीं. एक बार तो उनकी तबीयत हुई कि सफाई का अनुशासन तोड़ने वाले सब पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलवा दें, पर दफ्तर के बड़े बाबू ने उन्हें ऐसा न करने की राय दी क्यों कि सरकारी ‘वन महोत्सव’ दस दिन बाद ही आने वाला था और तब हमें पेड़ों की ज़रूरत पड़ सकती थी. मुआयने का दिन ज्यों ज्यों नज़दीक आता गया उनकी नींद-चैन-भूख गायब होती गयी. कभी आँख लगती, तो फर्श की टाइलों पर छूट गए अदृश्य धब्बे उन्हें झंझोड कर उठा देते!
आखिरकार सफाई के अंतर्राष्ट्रीय-विशेषज्ञ हमारे दफ्तर पहुँच ही गए. उन्होंने हर कोने का बड़ी बारीके से मुआयना किया था. हम सब बाबू लोग दम साधे अपनी अपनी सीटों पर बैठे ये सब देख ही रहे थे कि तीन जूनियर क्लर्कों ने, जो देर से पेशाब रोक कर बैठे थे, आ कर हमें बताया कि सब कुछ बेहद सफलता से निपट गया है, और अब कुछ देर बाद टीम ”मैडम” का इंटरव्यू करने उनके कमरे में जाएगी, जहाँ उन लोगों के लिए शानदार चाय-पार्टी का आयोजन रखा गया था. सीधे दार्जिलिंग से मंगवाई गयी चाय बनवाने काम मुझे सौंपा गया था, इसलिए भागता हुआ मैं मैडम के कमरे की तरफ दौड़ा, ताकि उनके ‘नवीनतम निर्देश’ नोट कर लूं! मैंने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी और प्रविष्ट हो गया.
उनकी कुर्सी खाली थी, मैंने उनके रेस्टरूम की तरफ देखते हुए खंखारा, वह कहीं नहीं थीं- न वेटिंग-लाउंज में, न अपने कमरे के चमचमाते शौचालय में, उन्हें दफ्तर में हर जगह खोज कर हांफता-हांफता वापस पहुँचा तो उनके कमरे में फिनाइल की तेज गंध छाई हुई थी..और ये देख कर मैं जड़ हो ही गया कि मैडम की कुर्सी पर उनकी जगह पर ठीक उनकी लम्बाई की एक आदमकद सींक-झाडू बैठी थी !
उन्हीं की आवाज़ में मुझे डाँटते हुए झाडू बोली - “ऐसे क्या देख रहे हो-सुधीन्द्र! टीम कहाँ है? जाओ- पेंट्री में जा कर देखो- चाय कहीं ठंडी न हो गयी हो!”
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हेमंत शेष
४०/१५८, स्वर्ण पथ, मानसरोवर
जयपुर-३०२०२०