Monday, February 13, 2012

चार कहानियाँ

हेमंत शेष
१.
घंटी
आज उन्होंने अपने वार्डरोब की सबसे महंगी साड़ी पहनी थी, बाल मेहँदी से रंगे थे, दो बार शैम्पू किया था, दो ही दिन पहले फेशियल करवाया था. सिर पर अशोक के पत्तों से सजे चार घड़े रखे प्राइमरी स्कूली बालिकाओं से तिलक लगवा कर भीड़ के नमस्कार स्वीकारतीं, बेफिक्र दिखने की कोशिश के बावजूद वह अपनी उदासी को छिपा नहीं पा रहीं थी! अपनी पेंतीस साल लंबी राज्य-सेवा से वह आज निष्कलंक रिटायर हो रहीं थी....सजे-धजे मंच पर आसन जमाये अतिथियों को मन मन में गालियाँ देता कर्मचारी-संघ का अध्यक्ष, माइक पर प्रशस्तिपत्र पढ़ रहा था- “....आप के कुशल और प्रेरणादायक नेतृत्व में हमारे दफ्तर ने सफलता की ऐसी-ऐसी अनदेखी ऊंचाइयां छुईं हैं, जिनका आपके कार्यभार संभालने से पहले किसी को गुमान न था! पेंतीस साल तक आपके प्रभावी-मार्गदर्शन में....”
दफ्तर के कई संगठनों उन्हें सम्मानपत्र भेंट किये थे और फूल मालाओं से लाद दिया था.... उनकी चमचमाती सरकारी कार का दरवाज़ा ड्राइवर ने आज और ज्यादा नम्रता से खोला, तीन पी.ए, चार स्टेनोग्राफरों, सात बाबुओं, और ग्यारह चपरासियों ने, एक के बाद एक झुक कर उनके पाँव छुए और वह अपने विदाई-समारोह के प्रभावशाली और गरिमापूर्ण ढंग से निपट जाने पर अभिभूत नज़र आने लगीं!
गुलाब की बड़ी-बड़ी मालाओं से लदीं जब वह घर पहुंचीं. आते ही खुद उन्होंने सम्मान-पत्र करीने से ड्राइंगरूम की शेल्फ में सज़ा दिए, बुके और फूलों के महंगे गुल्दस्ते यथास्थान सलीके से जमा दिए, ए सी चालू किया, और स्थानीय खबर-चैनल पर पर अपने विदाई समारोह की खबर सुनने के लिए टी वी का रिमोट हाथ में ले लिया...वह थकान सी महसूस कर रहीं थीं और उन्होंने चाहा तत्काल कोई एक गिलास पानी उन्हें पिला दे!
उन्होंने रिमोट एक तरफ रख दिया और चपरासी को बुलाने के लिए कोर्डलेस घंटी बजाई.... पर दूसरी दफा घंटी बजाने पर भी जब कोई नहीं आया, तो वह बेचैन नज़र आने लगीं...कुछ पल ठहर कर उन्होंने तीसरी लंबी सी घंटी बजाई. उन्हें बड़ी तिलमिलाहट हुई... दफ्तर के चार माली, दो ड्राइवर और पाँच नौकर उनके पास बरसों से थे, पर सर्वेंट क्वार्टर, बगीचे और पोर्च में सन्नाटा पसरा था... पेंतीस सालों में ये पहली दफा हुआ था कि घंटी बजाने पर भी कोई न आये! ये सोच कर कि शायद लोग आसपास ही कहीं हों, उन्होंने घंटी के बटन पर पैर रख दिया, इस पर भी जब घर में कोई हलचल नहीं हुई तो वह इस दफा अपना पूरा वज़न डाल कर घंटी के बटन पर खड़ी हो गईं.
घंटी की तेज कर्कश आवाज़ पूरे घर में गूँज रही थी....तभी उनके पेट में एक असहनीय दर्दनाक मरोड़ उठी, उनकी कनपटियाँ एकदम लाल हो गयीं, सांस यकायक फूली, सिर बुरी तरह भन्नाया, माथे पर पसीने की धारें बह आईं, दिल एकाएक बेहद जोर से धड़का, और वह- निर्जीव हो कर पेंतीस सालों से ड्राइंगरूम में बिछे महंगे सरकारी गलीचे पर लुढक गईं.....
***
२.
पहाड़
हर गाँव में एक पहाड़ होता है, जो उसी गाँव का पहाड़ कहलाता है. जहाँ आप को पहाड़ दिखे समझ लीजिए, उसकी तलहटी में कोई न कोई गाँव ज़रूर होगा. गांव वाले उसे देखते-देखते उस के इतने आदी हो जाते हैं कि अकसर उसी मौजूदगी को ही भूल जाते हैं, पर पहाड़ इस बात का कभी बुरा नहीं मानता! वह एक बहुत बड़े पुराने हाथी की तरह दृश्य में उपस्थित रहता है. गाँव के बच्चे खेल-खेल में बीसियों दफा इस पर जा चढ़ते हैं. उस पार के गाँव जाने के लिए भी लोगों को इस पर चढ़ना पड़ता है क्योंकि सड़क सड़क जाएँ तो चार किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा, वैसा झंझट कोई मोल लेना नहीं चाहता! औरतें भी ‘उस तरफ’ के बड़े हाट से सौदा-सुलफ लाने के लिए पहाड़ पर चढ़ कर आराम से उतर जाती हैं. अक्सर मवेशी चरते चरते पहाड़ की चोटी तक पहुँच जाते हैं और नीचे गाँव से ये पहचानना मुमकिन नहीं होता कि वे भैंसें किसकी हैं ? तब गाँव के लोगों को पहले अपने बाड़े या गाँव के आसपास जाकर गुमे हुए मवेशी की तलाश में निकलना पड़ता है! वहाँ से निराश हो कर वे फिर पहाड़ की तरफ जाते हैं. वे चोटी पर जा कर अपनी बकरियों को तुरंत पहचान लेते हैं जो ऊँचाई से बेफिक्र वहाँ चर रही होती हैं! उन्हें वहाँ पड़ौसी की सुबह से लापता गाय भी दिख जाती है जिसे वे बड़ी जिम्मेदारी से अपनी बकरियों के साथ ही नीचे उतार लाते हैं! पहाड़ से उतरी हुई गाय पहले जैसी ही होती है, सिर्फ उसकी पूंछ में झडबेरी के कुछ कांटे उलझे नज़र आते हैं, जिन्हें बच्चे तुरन्त निकाल फेंकते हैं. और तब गाय पुरानी गाय जैसी ही लगने लगती है. शाम होते न होते पहाड़ एक बहुत बड़े जंगी जहाज़ की तरह अँधेरे के समुद्र में डूबता नज़र आता है- तब उस पर कोई भी नहीं चढ़ता! झुण्ड बना कर दिशा-मैदान के लिए जाने वाली औरतें भी तलहटी से थोड़ी दूर बैठती हैं. रात को पहाड़ पर कोई लालटेन नहीं जलाता, जैसा हिन्दी कवि मानते हैं! शाम घिरते-घिरते गाँव का यह बहुत पुराना हाथी आँख से ओझल होने लगता है और देखते ही देखते गायब हो जाता है! हर रात लोगों को लगता है- उनके गाँव में कोई पहाड़ है ही नहीं.

-शहरों में ऐसा बिलकुल नहीं होता!

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३.
चौथी तस्वीर
उनका सुनहरा महंगा फ्रेम धुंधला हो कर तीन-चार जगह से चटख गया था, शीशों पर तो इतनी धूल जमा हो गयी थी कि भीतर देख पाना ही नामुमकिन था. पीछे शायद बड़ी-बड़ी मकड़ियों के घर भी थे- जिनसे मुझे बड़ा डर लगता था. सालों से तीनों की झाड़-पौंछ नहीं की गयी थी- दीवाली पर भी नहीं, और वे हमारे हमारे ‘ड्राइंगरूम’ की न जाने कब से शोभा बढ़ा रहीं थीं! एक के बराबर एक लगीं तीन तस्वीरें- जिन्हें दादा पता नहीं कहाँ से लाये थे, दीवानखाने की सबसे सामने वाली दीवार पर इतने ऊपर लगीं थी कि मैं अपने ठिगने कद की वजह से उन्हें ठीक तरह देख भी नहीं पाता था!
मैंने दादा से, घर की सबसे पुरानी इन तस्वीरों के बारे में कई बार पूछा भी, पर कभी उन्होंने मेरे सवाल का कभी जवाब नहीं दिया कि आखिर वे तीन तस्वीरें हैं किन की ? लिहाज़ा, मैंने दादा से पूछना ही छोड़ दिया, पर घर के सबसे महत्वपूर्ण कमरे में इन तीनों की मौजूदगी से, मुझे भीतर ही भीतर जो भयंकर कोफ़्त थी, आखिर तक बनी रही!
पर वह सुबह जिंदगी में मैं शायद कभी नहीं भूल सकता, जब मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था, दादा बेहद उत्तेजित, हाँफते हुए दीवानखाने में आये. उन्होंने बगल में बेलबूटेदार चिकने कागज़ में खूबसूरत लाल सुर्ख रिबन में बंधी एक चौकोर सी चीज़ दबा रही थी. उनका झुर्रियों भरा चेहरा किसी अदम्य उत्साह से दमक रहा था. आते ही उन्होंने, मुझे सब काम छोड़ कर घर की सबसे लंबी स्टूल, जिसे हम मज़ाक में “ ऊँट-कटेली ” कहते थे, आँगन से खींच कर लाने का हुक्म दिया!
मैंने आदेश की फ़ौरन पालना की! दादा आश्चर्यजनक फुर्ती से “ऊँट-कटेली” पर जा चढ़े, दीवार पर टंगी तीनों तस्वीरें उतार कर उन्होंने एक के बाद एक मुझे पकड़ाईं, और नीचे उतर आये.
मैं इतना आश्चर्यचकित था कि बस!
बरसों में वे तीनों तस्वीरें पहली दफा ज़मीन पर उतरीं थीं- पर ताज्जुब.... उनके पीछे न तो मकड़ियों के जाले थे, न काली बड़ी-बड़ी चिकत्तेदार मकड़ियाँ, जिनसे मुझे बेहद डर लगता था ! तस्वीरें जहाँ से उतारी गयी थीं, आसपास की धूल ने दीवार पर बस तीन शानदार फ्रेम बना दिए थे- अपने हमशक्ल. कमरे की दीवारों का रंग-रोगन उड़ जाने की वजह से तस्वीरों के नीचे रहे आये हिस्से, ज्यादा आकर्षक और गहरे दिख रहे थे. असल में वही रंग रहा होगा- हमारे दीवानखाने की दीवारों का- मैंने सोचा और स्कूल जाने का झंझट फ़ौरन छोड़ दिया!
दादा ने कहा – “जानता है, चुनावों के बाद आज चौथी दफा हमारे राज्य के नए राजा बदले हैं! अपने राशन की दुकान पर नए राजाजी की तस्वीरें मुफ्त में बांटी जा रही हैं.....सुनहरे फ्रेम में मंढीं....उन्होंने मुझे भी मांगे बिना- ये दे दी....देख तो सही कैसी शानदार तस्वीर है...पुरानी तस्वीरों की जगह कैसी फबेगी- ये अपने ड्राइंगरूम में...” और दादा ने लाल फीता एहतियात से खोला, चिकना कागज हटाया और मैंने देखा, एक बेहद मंहगे, बेलबूटेदार सुनहरे फ्रेम में जड़ा एक गंजा होता, काले कोट में, टेढी लंबी सी नाक वाला हास्यास्पद सा आदमी मेरे सामने था!
मैं नए मुखिया सूरत देख कर लगभग सन्न रह गया.
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, मुड कर मैं दीवार से उतारी गयी पुरानी तीनों तस्वीरों के पास गया, जोर से फूंक मारी और जेब से रुमाल निकाल कर तीनों को साफ़ कर डाला!
उन तस्वीरों- चारों में वही, वही-हू-ब-हू बिलकुल वही एक गंजा होता, काले कोट में, टेढी लंबी सी नाक वाला हास्यास्पद सा आदमी मेरे सामने था!
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४.
झाड़ू
वह एक कुशल प्रशासक थीं. हर दफ्तर में अपने कामकाज और व्यवहार की नहीं, उन्होंने अपने ‘सफाई-पसंद’ होने की अमिट छाप ज़रूर छोड़ी. जहाँ-जहाँ वह पदस्थापित रहीं, दफ्तर के बाबू और अफसर, सब, रोजमर्रा सरकारी कामकाज की बजाय, साबुनों- डिटर्जेंटों और फिनाइल के प्रकारों, पौंछा लगाने की सही तकनीकों, डस्टर की सही-आकृति, कूड़ेदानों की स्थिति, शौचालय की टाइलों और फर्श की धुलाई वगैरह जैसे गंभीर-विषयों की ही चर्चा किया करते थे. कलफ लगे साफे में एक चपरासी, उनके पीछे-पीछे, एक डस्टबिन लिए चलता था. मजाल क्या, जो एक भी चीज़ यहाँ-वहाँ बिखरी नज़र आ जाए! अगर फर्श पर माचिस की एक बुझी हुई सींक भी नज़र आ जाए तो वह बुरी तरह बिफर जातीं. शौचालय अगर हर दो घंटे बाद एसिड से साफ़ न किये जाएँ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता, रोज सबेरे नौ और शाम चार बजे, दफ्तर के सारे बाबुओं और अफसरों को अपने कमरे में बुला कर वह सफाई के महत्व को ले कर भाषण पिलातीं! एक दिन पता नहीं कहाँ से उन्होंने पढ़ लिया कि “सर्वश्रेष्ठ सफाई-व्यवस्था” के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था, ‘आई एस ओ’ प्रमाणपत्र देने वाली है!
मुकाबला बेहद बड़ा था-कड़ा भी, पर एक अखिल-भारतीय अँगरेज़ ‘आई. सी. एस.’ की तरह उन्होंने चुनौती को स्वीकारा. दफ्तर में आनन-फानन में नए सफाई-कार्मिकों की भर्ती की गयी और तभी से उनका सारा वक्त प्रतिभा और ध्यान इसी तरफ लग गया! शाम को देर तक घर न जातीं, देर रात तक पौंछा वालों की टीम के साथ दीर्घाओं, छतों और कमरों की झाड़ू-बुहारी करवाती रहतीं....पर लोग थे जैसे उन्हें अपने मकसद में कामयाब ही होने देना नहीं चाहते थे! कभी कोई गाँव वाला बीड़ी का ठूंठ फर्श पर फ़ेंक देता तो कभी कोई वकील, बस का पुराना टिकिट या माचिस की खाली डिब्बी! वह घटनास्थल पर भुनभुनाती आतीं और गांधीवादी तरीके से कचरा उठवा ले जातीं! पतझड़ का मौसम तो जैसे जान लेने को आमादा था....हवा के साथ टहनियों से टपके भूरे-पीले पत्ते गिरते रहते और यहाँ वहाँ उड़ते-फिरते. उन्हें ठिकाने लगाने के लिए वह साड़ी चढ़ा कर उनके पीछे दौड़तीं. एक बार तो उनकी तबीयत हुई कि सफाई का अनुशासन तोड़ने वाले सब पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलवा दें, पर दफ्तर के बड़े बाबू ने उन्हें ऐसा न करने की राय दी क्यों कि सरकारी ‘वन महोत्सव’ दस दिन बाद ही आने वाला था और तब हमें पेड़ों की ज़रूरत पड़ सकती थी. मुआयने का दिन ज्यों ज्यों नज़दीक आता गया उनकी नींद-चैन-भूख गायब होती गयी. कभी आँख लगती, तो फर्श की टाइलों पर छूट गए अदृश्य धब्बे उन्हें झंझोड कर उठा देते!
आखिरकार सफाई के अंतर्राष्ट्रीय-विशेषज्ञ हमारे दफ्तर पहुँच ही गए. उन्होंने हर कोने का बड़ी बारीके से मुआयना किया था. हम सब बाबू लोग दम साधे अपनी अपनी सीटों पर बैठे ये सब देख ही रहे थे कि तीन जूनियर क्लर्कों ने, जो देर से पेशाब रोक कर बैठे थे, आ कर हमें बताया कि सब कुछ बेहद सफलता से निपट गया है, और अब कुछ देर बाद टीम ”मैडम” का इंटरव्यू करने उनके कमरे में जाएगी, जहाँ उन लोगों के लिए शानदार चाय-पार्टी का आयोजन रखा गया था. सीधे दार्जिलिंग से मंगवाई गयी चाय बनवाने काम मुझे सौंपा गया था, इसलिए भागता हुआ मैं मैडम के कमरे की तरफ दौड़ा, ताकि उनके ‘नवीनतम निर्देश’ नोट कर लूं! मैंने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी और प्रविष्ट हो गया.
उनकी कुर्सी खाली थी, मैंने उनके रेस्टरूम की तरफ देखते हुए खंखारा, वह कहीं नहीं थीं- न वेटिंग-लाउंज में, न अपने कमरे के चमचमाते शौचालय में, उन्हें दफ्तर में हर जगह खोज कर हांफता-हांफता वापस पहुँचा तो उनके कमरे में फिनाइल की तेज गंध छाई हुई थी..और ये देख कर मैं जड़ हो ही गया कि मैडम की कुर्सी पर उनकी जगह पर ठीक उनकी लम्बाई की एक आदमकद सींक-झाडू बैठी थी !
उन्हीं की आवाज़ में मुझे डाँटते हुए झाडू बोली - “ऐसे क्या देख रहे हो-सुधीन्द्र! टीम कहाँ है? जाओ- पेंट्री में जा कर देखो- चाय कहीं ठंडी न हो गयी हो!”
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हेमंत शेष
४०/१५८, स्वर्ण पथ, मानसरोवर
जयपुर-३०२०२०

Thursday, January 5, 2012

राजस्थान में आधुनिक कला

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सन् 1960 से 2010 के छः दशक राजस्थान की आधुनिक कला के लिए दो कारणों से महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। एक तो यह कि इस अन्तराल में बहुतेरे उल्लेखनीय चित्रकारों का काम सामने आया, और दूसरे यह कि यहाँ के कुछ चित्रकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए निहायत मौलिक, अपनी निजी चित्रभाषा भी ईजाद की। इन्हीं वर्षों के दौरान विश्वविद्यालय-स्तर पर कला के अध्ययन-अध्यापन की भी शुरुआत हुई। कला के क्षेत्र में शोध और अनुसन्धान भी इसी अवधि में ज्यादा सामने आ पाए। आज राजस्थान में छोटे-बड़े ‘आधुनिक‘ शैली के शायद तीन सौ से भी अधिक चित्रकार हैं, किन्तु सरसरे तौर पर ऐसे कलाकारों का उल्लेख किया जा सकता है, जिनकी रचनाओं में अपनी चैत्रिक-निजता है अगर 'कथ्य' में नहीं, तो अंकन में तो अवश्य ही।
मौलिक और स्थानिक
जिन और चित्रकारों ने अपनी मौलिक कला-प्रतिभा का प्रमाण दिया है, उनमें दो चित्रकारों का नामोल्लेख आवश्यक है। ये दो प्रमुख कलाकर्मी हैं- बसंत कश्यप और रामेश्वर सिंह ‘राजपूत‘।
रामेश्वर सिंह ने राजस्थान की परम्परागत लोक चित्रकला शैली ’पड़’ को कैनवास पर नए संदर्भों में प्रस्तुत किया है। यह पांरपरिक रूपाकारों से बनाई गई ’पड़’ कहीं-कहीं पर सावधानीपूर्वक जलाई या ’ब्लो’ की गई है। ’अग्निदग्धता’ सुनहरी कालिमा में लिपटी अवसान की देहरी पर खड़ी इस लोक-कथा-परम्परा के लिए शायद बहुत सटीक प्रतीक हो। अतीत की समस्त परम्पराएँ, आज निष्क्रमण के जिस ऐतिहासिक दौर से गुजर रही हैं, उसमें मूल्यों, मान्यताओं और लोक-विश्वासों का बदलाव या विलोप नितान्त स्वाभाविक है। रामेश्वर सिंह की कला में जो ‘पड़‘ अंकित की गई है- वह ’साध्य’ नहीं अपितु एक ’साधन’ है, संक्रमण के इस निर्णायक काल-चक्र की पृष्ठभूमि, जो हमें निरन्तर अपने संदर्भ-परिवर्तन के सच से साक्षात्कार करवाती जान पड़ती है। लोक-कला-परम्परा के अनुरूप वह फलक पर क्रमवार अंकित भी नहीं है। ‘पड़‘ के कुछ कथा-खंड अपने लिए रामेश्वर सिंह चुन लेते हैं, जिन्हें वह चित्रावकाश के अलग-अलग हिस्सों में अंकित करते हैं। परम्परागत कैलीग्राफी या चित्रलिपि भी इस सब के साथ जुड़ी है। रामेश्वर सिंह की कला में परम्परा बदलने का एक प्रबल बोध है, जब कि बसन्त कश्यप की कला के सबसे प्रमुख तत्त्व हैं- शिल्पाग्रह और लोक-चेतना।
बसन्त कश्यप के चित्र (जिन्हें चित्र न कह कर शिल्प-चित्र ही कहना अधिक ठीक होगा) सहज और सामान्य विषयों का आकृतिपरक लोक-बुनावट के साथ इतना भिन्न चित्रण है कि बहु-प्रचलित से नया भाव तुरन्त जाग उठता है। कठपुतली-कला से प्रभावित इनकी शिल्प रचनाओं की आकृतियाँ अपने रंग-बोध में भी लोक-कला की समृद्ध स्मृति जगाती हैं। किन्तु कथानक के चित्र-संदर्भ यहाँ सारे नए हैं। रेलगाडी़ के डिब्बे में यात्रारत-युगल उनका अपेक्षाकृत अधिक प्रिय विषय है। त्रिआयामी रचना के तौर पर इनके काम में बहुत दर्शनीयता है। तीखे और मूल वर्णां के उपयोग में उनकी दिलचस्पी गहरी है। वह चित्र की अन्तर्वस्तु को अधिकाधिक ‘दिखनौट‘ बनाने के लिए चीजें का कोलाज भी रचते हैं।
राजस्थान की परम्परागत चित्रकला, जैसा कि हमने पहले कहा, आज भी चित्रकारों की रचना की प्रेरणा बनी हुई है। नाथूलाल वर्मा, कन्हैयालाल वर्मा, शहजाद अली शीरानी, घनश्याम शर्मा, बी.पी. शर्मा, तेजसिंह, वीरेन्द्र शर्मा, रमेश ग्रामीण, ललित शर्मा, चन्दूलाल चौहान, हरीश वर्मा,लालचंद मारोठिया, रमेश वर्मा, छोटूलाल, फूलचंद वर्मा, और हेमन्त ’चित्रकार’ (उदयपुर) आदि ऐसे ही कलाकार हैं, जिन ने पारम्परिक चित्रांकन को अपनाते हुए भी कुछ परिवर्तित ढंग से रचनाएँ बनाई हैं। यद्यपि इन सभी चित्रकारों में सुमहेन्द्र की तरह कुछ ’बोल्ड’ विषयों का अंकन नहीं है, पर पारम्परिक कला-शैलियों की ’सुन्दरता’ इनकी रचनाओं में अवश्य देखी जा सकती है। हालांकि यह भी सही है कि ये चित्रकार लगभग ’व्यावयायिक’ आग्रहों को ही लेकर कृतियाँ बनाते रहे हैं, पर राजस्थान की लघु-चित्र शैलियों की विशेषताएँ इनमें से कुछ कलाकारों की कृतियों में दृष्टव्य हैं। ये कलाकर्मी अलंकारिता, सजावटीपन और आकृतियों के अंकन में राजस्थान की प्राचीन कला-परम्परा से गहरे प्रभावित दिखलाई देते हैं।
ज्यामिति का रचनात्मक उपयोग
ज्यामिति का रचनात्मक उपयोग समकालीन कला की खासियत कही जा सकती है, जिसके प्रतिनिधि चित्रकारों में लक्ष्मीलाल वर्मा, चन्द्रमोहन शर्मा, रामावतार शर्मा और चम्पालाल मीणा जैसे कुछ कलाकर्मियों का नाम प्रमुख हैं। वर्मा ने ग्राफिक माध्यम में और मीणा ने रेखांकन में चित्र-रचना की है। तैलचित्रों में देवीलाल पुरोहित एवं विष्णुदत्त सोनी कभी केवल ज्यामिति में ही काम करने वाले कलाकार रहे हैं।
ग्राफिक चित्रांकन के क्षेत्र में राजस्थान के थोड़े से कलाकारों ने ही उल्लेखनीय काम किया है। लक्ष्मीलाल वर्मा (उदयपुर, 1944) का स्थान ऐसे ही गंभीर ग्राफिक कलाकारों में प्रमुख रहा है। वह पिछले कई वर्षों से अपने ग्राफिक छापों में कथ्य और उसके विविध प्रयोजनों को ले कर काम कर रहे हैं। उनका रास्ता सिर्फ ज्यामिति की उंगली थाम कर ही तय हुआ है, पर अपने छापों के लिए यदा-कदा वह उससे इतर विषय भी चुनते हैः कभी अर्द्ध-आकृति या फिर कोई अमूर्त दृश्य-चित्र।
प्रधान बात यह है कि लक्ष्मीलाल वर्मा अपनी रचनाओं में जिस बात को पैदा करते हैं वह अकस्मात् हमारे सपास के भौतिक जगत के किन्हीं जाने-पहचाने ज्यामिति पैटर्न की याद जगाती चलती है। ज्यामिति को ले कर जो बहुरूपता इनके काम में है वही इनकी एकमात्र खूबी है, और लक्ष्मीलाल वर्मा के छापे देखते हुए हम कल्पना और स्ट्रक्चर के मेल से बने एक अलग स्वाद तक जा सकते हैं। इनके छापों में आयताकार, वर्गाकार, वृत्ताकार, त्रिकोणात्मक और दूसरी कई ज्यामितिक या केन्द्रीय-सरंचनाएँ मिलती है: कभी एक दूसरे पर हावी होती, कभी एक दूसरे को स्वीकार या ‘एकोमोडेट‘ करती, कभी एक साथ पास-पास गुंथीं और जमी। चित्रावकाश में व्यवस्थित होना इनका एक अलग गुण है। गहरे रंगों और उनकी रंगतों को काली रेखाएँ अनुशासित बनाती हैं और उनकी जगह छापे की मूल-संरचना में निर्धारित करती हैं। रंगों के आपसी अतिक्रमण से जो रंगतें वह कागज पर पैदा करते हैं- दृष्टि को परिप्रेक्ष्य की गहराई देती है। इससे न केवल ठस रूपाकारों की एकरसता ही भंग होती है, अपितु यह माध्यम पर उनके नियंत्रण की सूचना भी है।
कई दफा लक्ष्मीलाल रेखाओं का इस्तेमाल सतह के टैक्सचर की तरह करते हैं। रेखाएँ-जिनको गणितीय तरीकों से कागज पर बिछा कर उनके निहित सौन्दर्य को पहचानना और उनका प्रयोग अपनी ज्यामिति के निमित्त कर लेना अक्सर उन्हें आता है। अमूर्त अभिव्यंजनाओं के ये स्वरूप इन्हें कई बार तंत्र चित्रांकन की चेतना के बगल में ला खड़ा करते हैं- उस ‘शास्त्रीय‘ अर्थ में तो नहीं, जिस में तंत्र-परम्परा को व्याख्यायित किया जाता रहा है- पर पदार्थ और चेतना के सम्मिलित प्रभावों के सहारे केसरिया और काले रंग-आयोजनों की मदद से शायद हम इस नतीजे पर पहुंचना चाहें। कथ्य को अधिकाधिक विरल बना कर उसे ‘महत्त्वहीन‘ बना डालने की प्रवृत्ति भी लक्ष्मीलाल वर्मा में है। इसके छापों में बहुधा कथ्य इतना संकेतात्मक है या घट कर साधारण महत्त्व का रह गया है कि वह किसी ‘वृहत्तर‘ अर्थ को हमारे लिए प्रस्तुत नहीं करता। केवल कुछ श्लथ स्पंदनों के अमूर्त टुकड़े एक अजीब बिखराव और गुन्थाव में तैरते से नजर आते हैं, ऐसा लगने लगता है कि वह ज्यादा वजन केवल ज्यामितिक आकारों की अलग-अलग परिधियाँ नापने पर ही देते रहे हैं, क्योंकि हैं भी वह मूलतः ज्यामितिक कल्पनाओं को साकार करने वाले कलाकार ही। ऐचिंग, वुडकट, लिथोग्राफ और दूसरी तकनीकों से बनाए गए छापों में लक्ष्मीलाल वर्मा अपनी रचना-दुनिया को भरने के लिए कई स्तरों पर ज्यामितिक रूपों को उभारते हैं। अगर उनके यहाँ छापे का आधार आयत है, तो उस पर हल्की वर्गाकार आकृतियाँ और गोलाकार रेखाओं से उस स्पेस को अधिक भीड़ भरा बनाया गया है। कहीं-कहीं वर्मा के छापों में ज्यामिति का आग्रह इतना प्रबल है कि वे ‘डिजाइन‘ होने का भ्रम देने लगते हैं। वैसे ज्यामिति का यह एक गोपन खतरा ही है कि उसके असावधान प्रयोग से बनती हुई बात ‘बिगड़‘ सकती है और पेन्टिंग सिर्फ एक रूपांकन या डिजाइन भर बन कर रह जाती है। बहुधा इन्होंने केन्द्रीय संयोजन में ही रचनाएँ की हैं- जिसमें आकारों को काफी सोच-समझ कर जमाया-जन्माया गया है। लक्ष्मीलाल वर्मा के छापों में एक रैखिक शिल्पी की सी चेतना है। वह मेहनत और लगन के साथ अपनी बात कहना चाहते हैं। उनमें एक प्रयत्नसाध्य कसावट है। इसीलिए लक्ष्मीलाल वर्मा हमें रेखाओं के एक अनगढ़ सौन्दर्य से नहीं, बल्कि पूर्व नियोजित रचना-विन्यास से जोड़ते हैं। ज्यामिति की सृजनशीलता का उपयोग करते हुए इनके छापे हमें किंचित भिन्न दृश्यात्मक प्रभावों की तरफ खींच ले जाते हैं, इसलिए लक्ष्मीलाल वर्मा का काम राजस्थान के ग्राफिक कलाकारों की वर्णमाला में एक अलग हिज्जे की तरह है।
चम्पालाल मीणा के स्याही रेखांकन इसके विपरीत अधिक ‘गणितीय‘ तरीके से आकृतियों के दोहराव और उनकी पुर्नरचना का उदाहरण हैं। व्यावसायिक तौर पर की जाने वाली डिजाइनिंग से अगर इनकी कला अपना स्वतंत्र कद विकसित कर सकती, तो चम्पालाल एक सशक्त ज्यामिति रचनाकार होते, पर वह चित्रांकन-यात्रा में अब थम गये हैं।
विष्णुदत्त सोनी के कैनवासों में प्रमुख रूप से वृत्ताकार रूपों का सतरंगा उपयोग रहा है। मूल और गर्म रंगों के प्रयोग से वह फलक की पूरी-पूरी स्पेस को भरते हैं। ‘तनाव‘ शीर्षक से चित्र-शृंखला में अब्दुल करीम एक असाधारण खिंचाव का कौशलपूर्ण बिम्ब जगाते आ रहे हैं।
बोल्ड प्रकृति रूपों का सजीव चित्रण, समदर सिंह खंगारोत ‘सागर‘ के यहाँ है। स्पष्ट तौर पर वह उभरी और ऐंठी हुई विशाल चट्टानों का अंकन करते हैं।
यथार्थवादी कला की दुनिया में स्व. बृजमोहन , सत्यपाल वर्मा और खंगारोत की सिद्धहस्तता और कौशल विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यों तो जयपुर में खेतांची जैसे ‘व्यावसायिक‘ दृष्टि से राजसी सुंदरियों का कौशलपूर्वक अंकन करने वाले चित्रकार भी हैं, पर सत्यपाल वर्मा, और समदर सिंह खंगारोत ने राजस्थान के ऐतिहासिक किलों, अरावली की वृहदाकार चट्टानों और आंचलिक जनजीवन के रोजमर्रा दृश्यों को सधे हुए कौशल से व्यक्त किया है।
गणित के प्रोफेसर, दिलीप सिंह चौहान के चित्रों में उपस्थित रहतीं हैं- बहुधा कबंध मानवाकृतियाँ, जो बंधनशील मनुष्य के सन्ताप और पराजित जिजीविषा का प्रतीक हैं। श्लथ होते शरीराकार जैसे मानवीय संघर्ष की निरर्थकता, उसके सम्पूर्ण व्यर्थता-बोध और हमारी उद्देश्यहीन लड़ाई की अभिव्यक्ति बन जाते हैं। मानव-अस्तित्व की संवेदनाओं के प्रति सजग, ज्यामिति और ‘जीवन‘ का संयोग इनकी रचनाओं में दर्शनीय है।


'अतियथार्थवाद' की संचेतना
दुष्यन्त सिंह के ग्राफिक छापे और चित्र, बहुधा ‘फोटो यथार्थ‘ की मौजूदगी के जरिए सघन दृश्यात्मकता उकेरते हैं। चीजों और आकृतियों का एक अनोखा मेल इनके यहाँ है। इनकी कृतियों की अन्तर्वस्तु और उसके लिए ‘रूप‘ की खोज प्रेक्षक के लिए बड़े रोचक अनुभव खोलती है। अपने छापों में वह किसी स्वतःस्फूर्त (अनौपचारिक) अमूर्तन के नहीं, बल्कि विचारपूर्वक गढ़ी गई एक पूरी ‘दृश्यमाला‘ के पक्षकार नजर आते हैं।
लगभग इसी चेतना के दो चित्रकार हैं-सुरजीत चोयल और चन्द्रमोहन मिश्रा । अगर वर्गीकरण की भाषा में कहना लाजिमी हो, तो हम कहेंगे कि दुष्यन्त सिंह और सुरजीत चोयल दोनों ही अपने कई चित्रों या छापों में ‘अतियथार्थवाद‘ की संचेतना जगाने वाले चित्रकार हैं।
दुष्यन्त सिंह में यह आग्रह जहाँ सांकेतिक और तरल है, वहीं शैल चोयल की चित्रकार पत्नी सुरजीत चोयल में बहुत प्रकट और मुखर। सुरजीत के तैलचित्र मानव अस्मिता की आन्तरिक विडम्बनाओं के भावपूर्ण अंकन हैं। उनके यहाँ ‘विषय‘ बहुत महत्त्वपूर्ण है। कथानक की पूरी गहराई के साथ वह हमें ले जाती हैं- एक असमंजस और अधूरेपन में जहाँ अवकाश है, खालीपन है-और है एक खास किस्म की भविष्यहीनता ! इनके तैलचित्र मानव-त्रास और अकेलेपन की आत्मीय अभिव्यक्तियाँ हैं। विकास भट्टाचार्य से सीधे-सीधे प्रभावित होने के बावजूद सुरजीत चोयल पूरी संवेदनशीलता और कलात्मकता के साथ दर्शकों के लिए रचतीं हैं, मानव-अस्तित्व के शीतयुद्ध के ऐसे क्षण, जिनके सामने ठहर कर किसी भविष्यविज्ञानी की तरह अपने आपके बारे में ‘आहत‘ हुआ जा सकता है। पुरानी सीपिया रंग की तस्वीरों और ऐतिहासिक छायाचित्रों से प्रेरणा ले कर प्राचीन को नये अर्थ देने वाले इनके कई उल्लेखनीय चित्र हैं।
सुभाष मेहता के रेखांकनों व तैलचित्रों में रही हैं- ज़ीब्रा-धारियों से रंगमंडित सुडौल, सजीव निर्वसनाएँ, जिनके चहरों की जगह उगे हुए हैं- समुद्री-पौधे ! फर्श के किनारे पर लेटे, खड़े या इन निर्वसनाओं के उड़ते हुए शरीर कैनवास पर आलौकिक मंजर उत्पन्न करते हैं। वह अतीन्द्रिय फैन्टेसी के कलाकार रहे हैं। ‘नाटकीयता‘ का तत्त्व सुभाष मेहता की कला में अधिक प्रखर है। उनके चित्र हमसे बहुत कुछ कहते और हमारी कल्पना के लिए भी बहुत गुंजाइश छोड़ते हैं। ग्रीक और यूनानी फरिश्तों की सी ज़ीब्रा निर्वसनाएँ इनके कैनवासों में किसी न किसी हलचल और मकसद से आबद्ध जान पड़ती हैं। ‘फैशन-मॉडलिंग‘ जैसी कृत्रिमता, अगर इन नारी शरीरों में नहीं भी है, तब भी वे एक अलौलिक रचना-सृष्टि की प्रतीक जरूर हैं। स्याह-सफेद में कभी सुभाष मेहता ने इस स्वनिल कथा-लोक को एक बेहतरीन बनगट के साथ उपजाया था। शायद इसी से ‘चित्रात्मकता‘ औरों की बजाए सुभाष मेहता की कला में तब बहुत अधिक थी। अपने दूसरे कला-दौर में नाथद्वारा में जन्मे सुभाष मेहता (1950) ने श्रीनाथ जी और उनकी झांकियों का पारम्परिक चित्रण करने वाली नाथद्वारा-कलम से प्रेरणा लेते हुए, श्रीनाथ जी (कृष्ण) के विविध रूपों को एक्रिलिक ज्यामितिक संरचनाओं के भीतर कुछ अलग हट कर प्रस्तुत किया है। यहाँ कई बार श्रीनाथ जी से सम्बद्ध चिर-परिचित प्रतीक और वस्तुएँ ही कैनवास पर उभरी हैं- श्रीनाथ जी नहीं, परन्तु एक सीमित कथावस्तु का अदल बदल कर चित्र-संरचना में इस्तेमाल सुभाष मेहता की अपनी निजता तो है ही।
परम्परा का नवोन्मेष
सुमहेन्द्र ‘विषय‘ के तौर पर पर्याप्त नए भावों की सर्जना करते रहे हैं। उनके चित्रों में परम्परागत लघुचित्रों की खूबसूरती और अंकन-शैली को अति आधुनिक और बदले हुए जीवन-संदर्भों में प्रयुक्त करने का साहस देखने योग्य है।
हम आम तौर पर आधुनिक-कला से किसी किस्म के स्पष्ट राजनैतिक या सामाजिक संदेश को व्यक्त करने की अपेक्षा नहीं करते, इसलिए पहली बार में सुमहेन्द्र (जन्मः नायन-अमरसर। जयपुर, 1943) की कला से साक्षात्कार करते हुए उसमें निहित कथा के व्यंग्य भाव से रू-ब-रू होते हैं, तो उसे देख कर हम में समय की असंगतियों और गलीजपन का अहसास ही बरबस जाग उठता है। इनकी कला में सर्वत्र किसी न किसी तरह की आम्लिक-प्रतिक्रिया दिखलाई देती है-जो उन्होंने सामाजिक और नैतिक जीवन के अन्तर्विरोधों पर की है। इस मामले में उनकी कला 'सुझाववादी' है कि इसके माध्यम से सुमहेन्द्र हमें अक्सर अपने जमाने की विकृत असलियत के सामने ले जाने की कोशिश करते रहे हैं। कहीं-कहीं उनकी यह कोशिश सायास है, तो कभी प्रतीकात्मकता और निहित व्यंग्यार्थ के जरिए, इसी धारणा को गाढ़ा करने की इच्छा उपस्थित है। कभी-कभी हमें इनके चित्रों में एक सतही और अंगभीर टिप्पणीकार के उस मन का आभास भी मिलता है जो वर्तमान जिन्दगी के दोगलेपन और मान्यताओं के अवमूल्यन को ले कर बहुत कुछ बेलाग और सपाट ढंग से अपनी कला में कुछ कहने का प्रयास कर रहा है, पर विषय को ले कर इनमें जो नयापन है, वही इन्हें समकालीन चित्रकारों में एक अलग सा स्वर देता है।
निश्चत ही सुमहेन्द्र की कला में कोई ऐसे तत्व नहीं हैं, जो उसे ’प्रयोग’ के स्तर पर कोई वृहत्तर अर्थवत्ता देते हों, उनके चित्रों के कथानक से हमें अन्ततः सामयिक स्थितियों पर ’शिकायती’ शैली में टिप्पणी करने वाली एक सजग विनोदप्रियता का ही पता चलता है। परम्परागत चित्रांकन में निष्णात होने के कारण सुमहेन्द्र के लिए कला में वैसे तो ’व्यावसायिकता’ के दरवाजे खुले हुए हैं ही, पर सिर्फ ऐसा ही न कर उन्होंने एक जागरूक और सम्वेदनशील कलाकार के रूप में कसैले यथार्थ पर जो चोट की है वह उनके कलाकार के भीतर की ’आदर्शवादिता’ की ओर भी इशारा करती है। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि स्थितियों की कड़वाहट के माध्यम से ऐसा संसार रच रहे हैं जो उन्हें मान्य नहीं है। सुमहेन्द्र की रचनाएँ कुरूप यथार्थ की अस्वीकृति में उठे हाथ की तरह हैं। इनके बावजूद इन कृतियों में प्रकारान्तर से एक ऐसा अचेतन स्वप्न भी तैर रहा है जो आदमी, संबंधों और चीजों के रिश्तों को उनके वास्तविक या ’आदर्श’ रूप में देखना चाहता है।
सुमहेन्द्र की एक खासियत यह है कि उन्होंने राजस्थान के परम्परागत लघुचित्रों ’मिनिएचरों’ की खूबसूरती और अंकन शैली को नए या बदले हुए जीवन-संदर्भों में प्रयोग करने का साहस संजोया है। एक परम्परागत चित्रकार का अपनी चित्र-रूढ़ि से निकलना काफी मुश्किल है, पर वह लघुचित्र-शैली की विशेषताओं का कुशलतापूर्वक ’उपयोग’ करते हैं। सुमहेन्द्र की कला में पारम्परिक-कला कोई साध्य नहीं, बल्कि साधन है। संयोजन, रंग-समझ और आकृतियों के नैन-नक्श यहाँ लगभग वैसे ही हैं जैसे किशनगढ़-कलम में बनते हैं, पर उनके पीछे जीवन-दर्शन की भिन्नता है। उनका उद्देश्य केवल लघुचित्रों का सुन्दर-संयोजन हमारे लिए नमूदार करना नहीं, बल्कि इन चित्रों के पारम्परिक पात्र भी आधुनिक जीवन के दंश से जैसे डंसे हुए से हैं। वे हमें सुन्दर होते हुए भी लगातार एक समसामयिक ’कुरूपता’ तक ले जाने की कोशिश करते हैं। वह हमारे भीतर या आसपास की कोई भी कुख्यात समसामयिकता हो सकती है- वर्तमान जीवन की विकृतियों का कोई भी बिम्ब। सुमहेन्द्र की सारी कला हमारे इसी समकालीन बदशक्ल यथार्थ से सीधी मुठभेड़ है।
जैसा हमने पहले कहा, किशनगढ़-शैली की विशेषताओं का क्रियाशील इस्तेमाल वह अपनी कृतियों में करते हैं। यहाँ नागरीदास और राधा जैसे पात्र भी मौजूद हैं, पर उनके पीछे भाव-भूमि की भिन्नता है। कहीं राधा लिपस्टिक से होंठ रंग रही हैं, तो लजाते हुए कहीं कृष्ण को ’निरोध’ का पैकट थमा रही हैं! इनकी कृतियों में वृद्ध और कृशकाय नागरीदास आपनी जगप्रसिद्ध प्रियतमा राधा की देह किसी धनाढ्य विलासी को बेचने को विवश हैं। यहाँ कामदग्ध रूपवती स्त्रियाँ और आदमी भी हैं, जो चट्टानों की ओट में छिप कर काम-ज्वर का इलाज ढूंढ रहे हैं। इनके कुछ चित्रों में नवधनाढ्यों, सैक्स-विकृतियों, शिक्षा की विसंगतियों और फैशन पर भी व्यंग्य कसा गया है। वर्ग-भेद और युद्ध को ले कर भी उन्होंने चित्र बनाए हैं, पर कुल मिला कर सुमहेन्द्र हमें एक सांस्कृतिक-धक्का जैसा कुछ ही देते हैं और अक्सर खिल्ली उड़ा कर खामोश हो जाने से आगे हमें इनकी ऐसी कलाकृतियाँ नहीं ले जातीं।
अस्वीकृति में उठा हाथ
सुमहेन्द्र की एक और सीरीज है-'रागमाला', जिसमें विभिन्न रागों और रागनियों को आधार बना कर चित्रों की रचना की गई है। यहाँ केसरिया, नीले, काले, बैंगनी और गहरे भूरे रंगों और पृष्ठभूमि का रचाव संबंधित राग की मूल प्रकृति को ध्यान मे रख कर किया गया है। सुमहेन्द्र ने इस शृंखला में आसावरी, भैरवी, मालकौंस और वसंत आदि जैसी कई रागों को प्रकृति के बिम्बों के माध्यम से व्यक्त किया है। ये चित्र, मात्र कैलीग्राफी या दृश्यों का अंकन नहीं है, अपितु इस सबको आधार बनाकर ‘रागमाला‘ जैसे परम्परागत विषय को लगभग अलग तरह से रचने की कोशिश की गई है। उनके इन चित्रों में चट्टानों या विशालकाय शिलाखंडों का अस्तित्व जैसे आवश्यक है। चाहे वह रागमाला हो या कोई अन्य शृंखला, पहाड़ कुछ इस तरह बनाए गए हैं कि वे सामने खड़े पात्रों की गतिविधियों को और उजागर कर देते हैं। चट्टानें और पर्वत तो जे. स्वामीनाथन् (1928-1994) के कुछ तैलचित्रों में भी अनिवार्य रूप से हैं-(पर उनसे यहाँ प्रभावित होने के बावजूद) चट्टानें उतनी लयात्मक और कथ्यात्मक नहीं हैं- वे केवल चित्र-पृष्ठभूमि के निर्माण की प्रक्रिया का ही अविभाज्य हिस्सा हैं। उनके टैक्सचर और प्रयोजन भी स्वामीनाथन् के शिलाखंडों से भिन्न हैं। सुमहेन्द्र के यहाँ न तो उतना सरलीकरण है, न ही उतनी रहस्यवादिता। इनके चित्रों में चट्टानों के अलावा उन पर उगे महीन टहनियों वाले चित्रोपम वृक्ष इस दृश्यावली को सरस अवश्य बनाते हैं। हाँ, मानव आकृतियाँ उनके कथानक का एक जरूरी हिस्सा हैं। ये पात्र प्रकृति की विराट निर्जनता के बीच संभोग जैसे ‘सांसारिक‘ क्रिया-कलापों में उलझे हुए हैं। सुमहेन्द्र ने अपने चित्रों में परम्परागत भवन-सरंचनाओं और नगर-बोध के संकेतों का भी उपयोग किया है, पर प्रकृति की ही तरह मकानों या परकोटों के रूपाकार भी चित्र के कथानक को ‘सहारा‘ देने के लिए ही हैं।
राजस्थान की चित्रकला की एक अति समृद्ध परम्परा रही है और दुनिया की चित्रकला में उसका सम्मानजनक स्थान है। यहाँ आज भी परम्परागत विभिन्न चित्र शैलियों में काम करने वाले हजारों कलाकार सक्रिय हैं और उसे अपनी जीविका का साधन बनाए हुए हैं। परन्तु इनमें से अधिकांश कलाकार अनुकृतियाँ करने वाले यांत्रिक-कलाकार ही हैं, किसी भी शैली का ऐसा रचनाशील कलाकार विरला है, जो परम्परा की विरासत को जीवन के नए संवेदों के लिए काम में ले रहा हो।
सुमहेन्द्र की सारी कला परम्परा की भित्ति पर टिकी होने पर भी परम्परागत नहीं है। उस में नए और समकालीन संदर्भों का प्रवेश है। आधुनिक जीवन के ये अनुभव, जो बदले हुए संसार के बिम्ब हमारे सामने खोलते हैं- उन्हें (कथानक के स्तर पर) परम्परा से विद्रोह करने वाले एक सजग कलाकार के रूप में अपनी जगह बनाने में मदद देते हैं। चाहे सुमहेन्द्र की कला में कहीं-कहीं नारेबाजी, पोस्टरीय सपाटता या विद्रूप या मुंहफट खुलापन हो- उनकी कला के मंतव्य, अन्यों से बहुत कुछ भिन्न हैं, और शायद यही हो राजस्थान के समकालीन कला-परिदृश्य में उनकी विशिष्टता की वजह।
बनाया गया नहीं, बुना गया है चित्र
यहीं एक और विशिष्ट चित्रकार-सुरेन्द्रपाल जोशी (1958) के चित्रों के बारे में प्रयाग शुक्ल की टिप्पणी को यथावत् दिया जाना उपयुक्त होगा, जो उन्होंने इनके 1989 में आयोजित एकल प्रदर्शन पर लिखी थी- ’’चित्र-धरातल को अब वह बडी़ लगन और संवेदना के साथ तैयार करते हैं। आकृति-मुद्राएँ भी अब अधिक जीवंत लगती हैं। यहीं नहीं, वह निजी चित्र-भाषा की खोज करते हुए भी जान पड़ रहे हैं। यही उल्लेखनीय है। हर कलाकार अपनी चित्र-भाषा की खोज करते हुए कोई-न-कोई तरीका या लहजा अपनाता है। सुरेन्द्र का लहजा क्या है? जाहिर है कि वह आकृतियों की सांकेतिक भाषा से अपने अनुभवों को व्यक्त करना चाह रहे हैं। अंकन के स्तर पर कभी-कभी ये आकृतियाँ कठपुतली नाटकों के पात्रों की तरह भी लग सकती हैं। शायद ये हैं भी, वैसी ही। पर हम यह भी जानते हैं कि कोई भी कठपुतली तब प्राणरहित नहीं होती, जब किसी अनुभव को व्यक्त करने का माध्यम बन जाती है। ये आकृतियाँ भी माध्यम हैं। अकाल, बालू-कण, धूप-चांदनी-अंधेरा, रोजमर्रा का साधारण जीवन और इस जीवन के कुछ उपकरण - इस सबके अनुभव भी इन चित्रों में कहीं हैं। और आकृतियों की सांकेतिक-मुद्राओं के साथ हमें चित्र-धरातल या कुछ चित्र-स्पेस पर भी नजर रखनी है। वहाँ भी कुछ-न-कुछ घटित हो रहा है। चित्र-धरातल यहाँ जमीन की तरह ही है, वह कोई नाटकीय परदा नहीं हैं और आकृतियों का स्वरूप भी कठपुतली पात्रों जैसा भले हो, पर वे भी मंच पर न होकर इस यथार्थ जमीन पर ही हैं। अनुभवों को रखने का इस प्रकार का लहजा सुरेन्द्र को एक सम्भावनामय कलाकार बनाया है। रंगों पर भी गौर करें। पकी मिट्टी के से रंग या मद्धिम आँच में तपे हुए से ये रंग भी क्या स्वयं कलाकार के अनुभवों के तपने और पकने का संकेत ही नहीं दे रहे ? ’’
यह बात याद रखी जानी चाहिए कि स्वभाव से अत्यन्त विनम्र और संवेदनशील सुरेन्द्रपाल जोशी (जन्म: 1958) गांव मनियारवाला, उत्तरांचल) ने कैनवास और रंगों के पारम्परिक बर्ताव को बहुत पहले छोड़ दिया था, जब वह म्यूरल निर्माण के प्रशिक्षण-सृजन के काम में जुटे थे। यह सिर्फ संयोग भर नहीं कि उनके वर्तमान काम पर म्यूरल निर्माण के दौरान काम ली गयी बहुत सारी रचना-सामग्री और अनुभवों की छाप है। उनके यहाँ चित्र बनाया गया चित्र नहीं ‘बुना‘ गया चित्र ही है, जिसमें प्रयोजनपूर्वक काटे गये कपड़े, कतरनें, धागे, ऊन, बटन, वस्त्रों के छापे, कीलें, नट और बोल्ट तक बहुतेरी चीजें शामिल हैं। सामग्री की यह ‘साहसिकता‘ निश्चय ही कला में आधुनिक होने की ही पहल है-खास तौर पर तब जब कि अनगिनत जाने-माने चित्रकार भी अपने बन्धे-बन्धाये चित्र-ढर्रे और पिटी-पिटाई लीकों पर चलते जाने का लोभ नहीं छोड़ पा रहे।
मिश्रित माध्यम में सुरेन्द्रपाल जोशी की इस रचनाशील पहल से ही सम्भव हो सका है कि हम यहाँ लोक की और नागर संचेतना की याद एक साथ कर लेते हैं। पर लोक का यथार्थ यहाँ रचना के कथानक और माध्यम दोनों ही से प्रच्छन्न रूप से जुड़े होकर भी अपनी उपस्थिति का ढिंढोरा नहीं पीटता। वह मार्मिक ढंग से रोटी में नमक जैसा प्रशान्त और ‘जरूरी‘ ग्राम्य-बोध है। बहुत स्थूल ढंग से कहें तो इस चित्र-दुनिया में सुरेन्द्रपाल हमें जिस अनुभव से जोड़ना चाहते हैं, वे बुनियादी तौर पर रंग और टैक्सचर ही हैं, विविध आकृतियों और रूपों में। वे सर्वव्याप्ति का बोध हमारे भीतर जगाते हैं, पर कुछ याद रखने लायक रंग-बंदिशों के साथ। भित्तिचित्रों और लोक-कला की बहुतेरी अनुगूँजें यहाँ इसलिए भी आप देख-सुन सकते हैं कि पहाड़ के अपने पुराने दिनों की छाप चित्रकार पर गहरी है।
सुरेन्द्रपाल जोशी के शुरुआती काम में मनुष्य जीवन की त्रासद विडम्बनाओं का चित्रण था और कठिनतर होते जाते आसपास के प्रति एक अजीब अवसाद बोध से घिरा मन। पर बाद में क्रमशः उनके यहाँ और जीवन-स्वादों के अनुभव भी जुड़े ही। ‘काठ होते लोग‘ उनके रेखांकनों की पहली चित्र प्रदर्शनी का शीर्षक था, जो लखनऊ के फुटपाथ पर 1984 में आयोजित की गयी थी। जैसा कि एक समीक्षक ने ‘दिनमान टाइम्स‘ में लिखा था: ‘‘....1984 में ही सुरेन्द्र ने लखनऊ कला महाविद्यालय से पेन्टिंग की पढ़ाई पूरी की थी। एक दिन लखनऊ के एक व्यस्त चौराहे पर सुरेन्द्र ने एक ठेले वाले को एक दुर्घटना का शिकार होते हुए देखा। ठेले वाले को चोट तो ज्यादा नहीं लगी, पर ठेले का कचूमर निकल गया। सुरेन्द्र के संवेदनशील मन में एक दृश्य, अंकित हो गया। ठेले के टूटे हुए पहिये को ठेले वाले की आँखें अजीब तरह से देख रही थीं, जैसे उसका सब कुछ लुट गया हो। ‘काठ होते हुए लोग‘ प्रदर्शनी की रेखांकन-शृंखला की शुरुआत यहीं से हुई। अलग-अलग रंगों के कार्बन का इस्तेमाल करके चम्मच से खास तरह से घिस कर सुरेन्द्र जोशी ने आदमी और उसके पहिये की दुनिया का मार्मिक चित्रण किया.... पहिया बाद में सुरेन्द्र के कैनवास पर भी आया।....‘‘ इस टिप्पणी में जहाँ एक रचनाकार की चित्र-प्रेरणाओं की तरफ समीक्षक का इशारा स्पष्ट है, वहीं एक संवेदनशील कलाकर्मी के मन-मस्तिष्क की बनावट की ओर संकेत भी। पर मेरी धारणा यह है कि समीक्षक की उक्त बात में यह तथ्य भी छिपा है कि सुरेन्द्रपाल जोशी जैसे चित्रकार रचना-सामग्री के वैविध्य और उससे पैदा होने वाले प्रभाव के ‘नयेपन‘ को भी बराबर उचित तरज़ीह देते आ रहे हैं। सुरेन्द्रपाल जोशी के म्यूरल इसी बात के साक्ष्य हैं।
1995 में महीनों की मेहनत से बनाये 565 वर्गमीटर आकार के जयपुर के ‘इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ मैनेजमेंट एण्ड रिसर्च‘ के आरम्भिक म्यूरल ‘शहर से परे‘ से लेकर बाद तक के कामों में सुरेन्द्रपाल जैसे अपने को बहुत देर न दुहराते हुए रोचक ढंग से अपनी बात कहना चाहते आ रहे हैं। शेखसराय स्थित ‘तेल भवन‘ का उनका 66 फीट लम्बा और 6 फीट चौड़ा लकड़ी में निर्मित भित्तिचित्र कलाकर्मी की मेहनत और महारथ का सबूत है। मानवाकृति को बदलने, तोड़ने और बरतने में जहाँ उनकी कुदरती दिलचस्पी है, वहीं अमूर्त के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं। वह बहुत कुछ लोक के सहज ढंग से रंगों, रेखाओं, आकृतियों, अनाकृतियों और टेक्सचर का मेल करते हैं।उनके पुराने चित्रों की संरचनाएँ हवा में झूलती-सी जान पड़ती थीं, तो कभी मोटी या बोल्ड रेखाएँ हुसेन सरीखे कलाकारों की याद जगाती लगती थीं, पर शुभ है कि उनका इधर किया जा रहा काम किसी और चित्रकार के काम से नहीं मिलता।
राजस्थान में रहने वाले कलाकारों-विद्यासागर उपाध्याय, शैल चोयल, अब्बास अली बाटलीवाला, अंकित पटेल, किरण मुर्डिया, सुरेश शर्मा, बसंत कश्यप, अशोक गौड़ आदि के बाद सुरेन्द्रपाल जोशी की कृति का भारत-त्रैवार्षिकी 2005 में चयन किया जाना उसी सम्मान की बात है जिसके हकदार निस्संदेह वह हैं। इस ‘सफलता‘ में सुरेन्द्रपाल जोशी की अपनी मौलिकता अर्जित करने के लिए तय की जा चुकी यात्रा के ही पदचिह्न हैं। एक ऐसा सफर जिसे एक प्रशान्त चित्रकर्मी ने बहुत धीरज, लगन और मेहनत से अब तक तय किया है। ‘‘
कोलाज और ज्यामिति
सुभाष केकरे और चन्द्रमोहन शर्मा के अलावा एक समय डॉ. मनोज ने कोलाज तकनीक को लेकर कुछ दिलचस्प संरचनाएँ तैयार की थीं। लम्बे समय तक चन्द्रमोहन शर्मा और सुभाष केकरे इसी तकनीक से जुडे़ रह कर चित्र-रचना करते रहे हैं।
चन्द्रमोहन शर्मा अधिकतर काली स्याही से रेखांकन भी करते रहे हैं, और मिश्रित माध्यम में उनका जुड़ाव साफ-सुथरी रेखाओं से है। वह काली स्याही के प्रयोग के साथ अमूर्त भावों को उत्पत्र करने वाली वस्तुओं और आकृतियों का चित्रांकन करते हैं। यदा-कदा इनके चित्रों में तंत्र विशेष रूप से पारम्परिक भारतीय ’यंत्रों’ की प्रेरणाएं भी देखी जा सकती हैं। आधुनिक कला और परम्परा के मेल की बानगी देखनी हो तो शायद तंत्र-चित्रकला इस चीज का सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण होगी। यह कला-मुद्रा पश्चिम के अनुसरण की बजाए, हमारी अपनी परम्परा से चित्र-अभिप्रायों की खोज करती दिखलाई देती है। पर यह रास्ता उतना आसान नहीं । परम्परा- जो अपने संस्कार और स्वरूप दोनों में महान् है, रचने की स्फूर्ति भी देती है और कथ्य-सामग्री भी; किन्तु बिना उसके दर्शन को आत्मसात् किए हम रस्मी तौर पर ही उससे जुड़ते हैं । दोहराव, उथलापन और जल्दी आ जाने वाली सीमाएँ हमें मार्ग ही में अपना शिकार बना सकती हैं। राज्य में स्व. रामचरण व्याकुल जैसे भी कई चित्रकार हुए हैं, जो तंत्र चित्रकला की बारीकियों को बूझे बिना केवल औपचारिक तंत्र-प्रतीकों का ठस इस्तेमाल करते रहे थे । पर गम्भीर कलाकर्मियों की बात करते उन्हें चर्चनीय क्यों माना जाए ?
परिप्रेक्ष्य-चेतना, आधुनिक चित्रकार के निकट एक ऐसी वस्तु-सत्ता है जिसकी बहुआयामिता बहुत से कलाकारों का ध्यान अपनी तरफ खींचती रही है। चित्र-रचना के दो-आयामी यथार्थ से कुछ चित्रकार संतुष्ट नहीं होते। वे ज्यामिति के उपयोग से कथानक को अधिक गहरा और बहुआयामी बनाना चाहते हैं। ऐसे लोगों के निकट ज्यामितिक संरचनाओं का अपना महत्त्व है। वर्ग, आयतें, समानान्तर और आडी़ या खडी़ रेखाओं के सधे हुए रचावों से चित्र के विषय को, जो कलाकार गहराई से व्यक्त कर रहे हैं, उनमें रामावतार सोनी जैसे लोगों के नाम गिनाए जा सकते हैं जो इधर निष्क्रियप्राय हैं। रामावतार अधिकतर आसमानी और नीले रंगों को ही काम में लेते रहे हैं। आधुनिक जीवन से जुडी़ हुई जो भवन-संरचनाएँ या वास्तुशिल्प हैं, उनके प्रति रामावतार का जैसे एक रागात्मक लगाव है। उनकी, ज्यामिति के प्रति यह सम्प्रक्ति देखने योग्य तीन आयामी वास्तुरचनाओं के कुछ नए दृश्य उपजाती है। सोनी के इस चित्रों में हम जैसे टाइलों से निर्मित एक निस्तब्ध और मानव-उपस्थित से पूरी तरह वंचित भवनशिल्पों, आधुनिक स्नानगृहों या दालानों और कक्षों को देख सकते हैं। यहाँ एक ही रंग प्रमुखतः नीले, की ’रंगतों’ के उपयोग से प्रकाश और छाया के कुछ अलग चाक्षुष प्रभाव उपजाए गए है।
ग्राफिक माध्यम के रचनाकार
ग्राफिक माध्यम में जो चित्रकार रचनाएँ रचते रहे हैं, उनमें पी. मनसाराम, भवानीशंकर शर्मा, विद्यासागर उपाध्याय, विनय शर्मा, (स्व.) आनन्द शर्मा, युगल किशोर, हरशिव शर्मा, हरिशंकर गुप्ता, दिलीप शर्मा, अब्दुल मजीद, आदि जैसे सक्रिय कलाकारों का नाम लिया जा सकता है। कोलोग्राफ का बहुत रचनात्मक उपयोग (तकनीक के स्तर पर) राजस्थान के कुछ युवतर चित्रकारों ने किया है ।
हरशिव शर्मा (1969) ने अपने कोलोग्राफ छापों में प्रकृति के कई आकर्षक बिम्ब रचे हैं। वह अक्सर वनस्पतियों-विशेष रूप से पत्तों को लेकर छापे बनाते रहे हैं। इनके यहाँ एक सघन भीड़ भरी सृष्टि है, जिसके भीतर पत्तों और वनस्पतियों के आपस में गुंथे हुए रूपाकार बड़े अर्थवान् बन पडे़ हैं। अपनी प्राध्यापक पत्नी अर्चना जोशी के साथ वह इधर एक अनियतकालिक अंग्रेज़ी कला-पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन भी कर रहे हैं।
गोपाल शर्मा (1965) के छापों में सैरे चित्रित हैं, तो दक्षा पाराक्षर (1963) के कोलोग्राफ पूरे कागज पर सघनता से फैली हुई अमूर्त रूपाकृतियों को उकेरते हैं। यहाँ टैक्सचर और रंगों को तन्मयता से आकारों के साथ जोड़ा गया है। इन छापों में कहीं-कहीं बादलों और दरख्तों की उपस्थिति है।
यह पूछा जा सकता है कि विनय शर्मा के इधर के इस नए काम में ऐसा क्या है, जो इन्हें अपने समकालीनों, यहाँ तक कि खुद विनय के कुछ पुराने ग्राफिक-काम से अलग करता है, इसका जवाब है: उनके इन चित्रों में आया समय-बोध! ये सारा उपक्रम एक तरह से प्रकृति के बहाने काल-ऊर्जा को ही पकड़ने और परिभाषित करने का है- प्रकृति जैसे इस कोशिश का बहाना भर ही है। दृश्यावलियों या सैरों की रचना विनय शर्मा का अभीष्ट निःसन्देह नहीं है- बल्कि दृश्यों के पीछे छिपे दृश्यों के चित्रकार वह हैं- यहाँ पुराना भी नया किया गया है और सब कुछ परिचित होते हुए भी बहुत सा अपरिचित है। विनय उसी अपरिचय से हमारा परिचय कराते हैं- इनके छापों में ‘समय-बोध‘ के बहुत सर्जनात्मक इस्तेमाल से। इन चित्रों में अगर प्रकृति के विविध रूपाकार हैं, तो हम यहाँ प्रकृति की गति और उसकी जटिल, संश्लिष्ट, परिवर्तनकामी शक्तियों को भी देख पाते हैं: उसकी संस्थिर एकात्मकता, आन्तरिक हार्मनी और ऊर्जा को भी। यह पहचानना भी खासा दिलचस्प है कि विनय शर्मा का इधर का यह काम न किसी पूर्ववर्ती के काम से मिलता है और न ही इस मौलिकता से इधर के युवा चित्रकारों के काम से। यहाँ वास्तव में कोई नई सी बात घटित हुई है। इस लिहाज़ से विनय शर्मा की यह श्रंखला एक प्रतिभावान् संवेदनशील और अध्यवसायी कलाकर्मी की प्रयोगशीलता का विश्वसनीय प्रमाण है। एक ऐसा प्रयास जो मिश्रित माध्यम की खूबियों का सृजनात्मक उपयोग कर पाने के ‘विवेक‘ से निर्मित है। तैलरंग, स्याही, क्रेयन्स, जलरंग, सैरीग्राफ आदि माध्यमों को कुशलता से उपयोग में लेते हुए विनय सचमुच के ऐतिहासिक दस्तावेजों, जन्मपत्रियों, बहियों, फ़ारसी में लिखे स्टाम्प पेपरों, कानूनी इबारतों,अंग्रेज़ी राज के पोस्टकार्डों, वस्त्र छपाई के ब्लॉकों आदि को जिस समझदारी से चित्र-फलक पर लाते हैं वह समय-बोध के बहुतेरे अनसुने मर्मों का स्मरण है। आकस्मिक नहीं कि इन सारे चित्रों में हम काल, मनुष्य और प्रकृति तीनों की सत्ताओं के आपसी अन्तर्संबंधों का सरस, रंगमय और गहरा साक्षात्कार करते हैं ।
संख्या में विपुल रचना करने वाले राज्य के एक और, लगभग उपेक्षित और कम चर्चित कलाकार के संबंध में लिखा जाना चाहिए था, वह हैं-जगमोहन माथोड़िया, जिनके चित्रों और रेखांकनों के विषय हैं-प्रकृति के रूप, चाहे वे कुत्ते हों या हंस, नर-नारी आकृतियों का रूपायन, जगमोहन इधर अमूर्त अंकन की तरफ़ भी झुके हैं- और ड्राइ पेस्टल रंगों में उनके नए चित्रों की शृंखला रंगमय अमूर्त रूपाकारों से बनाई गई है। यह याद करना दिलचस्प है अपनी चित्र यात्रा की शुरूआत जगमोहन ने स्याही रेखांकनों द्वारा शहरी भवनों, बहुमंज़िला इमारतों और महानगरीय आकाश-रेखा पर अक्सर दिखते दृश्यों से की थी, बाद में वही महानगर-बोध उनकी बाद की चित्र-श्रंखलाओं में पक्षियों के रूप में उभरा। जगमोहन माथोड़िया (1959, बाराँ) की दीर्घ कला-यात्रा का साक्ष्य उनके द्वारा बरते गए कई माध्यमों से भी मिलता है। उन्होंने तैलचित्रों, स्याही, पैंसिल, ड्राई-पेस्टल और जलरंगों में रचनाएँ की हैं। खास तौर पर कुत्तों को लेकर विपुल संख्या में बनाए गए उनके चित्रों की हैरतंगेज़ रूप से बड़ी संख्या का उल्लेख‘लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड‘ में भी किया गया है। ज्यामितिक रूपों से अपनी कला-यात्रा का प्रारंभ करने वाले इस चित्रकार की रचनाएं, प्रकृति के विविध रूपों पशु-पक्षियों, मनुष्यों, स्त्रियों, युगल-दम्पतियों, मेले और त्यौहारों और देवी-देवताओं पर केन्द्रित रही हैं और बेहतरीन क्षमताओं के बावजूद उन जैसे लगनशील की उपेक्षा समकालीन कला-समीक्षा की दयनीयता ही दर्शाती है। कुत्तों को लेकर बनाई गई अपनी बहुप्रशंसित शृंखला में जगमोहन माथोड़िया ने ‘कुत्ते‘ के माध्यम से बहुत से सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक पक्षों, विशेषतः मानवीय क्रियाकलापों और सरोकारों पर सशक्त टिप्पणी की है।
कम्प्यूटर पर कला
आधुनिक रचना माध्यम कम्प्यूटर पर सफलता से रचनाएं करने वाले नेशनल स्कूल ऑफ फैशन टेक्नोलोजी, दिल्ली के स्नातक पारिजात देवर्षि जयपुर मूल के अलबेले और अनूठे युवा कलाकर्मी हैं। उनकी दिल्ली में आयोजित एक बडी साइबर कला प्रदर्शनी में परिजात ने हिन्दू देवताओं की रूपवादिता को गहरे सांस्कृतिक और वर्तमान आशयों के साथ मूर्त किया है। वह 21वीं सदी की भविष्यगामी कला के ऐसे प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं, जो चित्रकारों के बीच मान्य और लोकप्रिय होने की अब भी बाट जो रहे माध्यम, कम्प्यूटर की अनगिनत संभावनाओं के प्रति गम्भीरता से उत्सुक दिखलाई पडते हैं। पारिजात का डिजिटल-संसार संश्लिष्ट है: वहां आने वाली दुनिया के अनदेखे दृश्यों के चित्रावकाश में रंगों, आकृतियों और कैलीग्राफी का साधवपूर्ण उपयोग है!
दूसरे प्रमुख सक्रिय रचनाकार
स्व. पी पी एस कोटावाला, स्व. रघुनन्दन शर्मा , स्व. वेदपाल शर्मा ‘बन्नू’, स्व.मालाराम शर्मा, स्व. घनश्याम शर्मा और स्व. ब्रजमोहन ('मोर') आदि यथार्थवादी शैली के चितेरे थे तो किसी न किसी भिन्न मुहावरे की खोज में निरत रमेश सत्यार्थी, रणजीत सिंह, सुनीत घिल्डियाल, प्रकाश परिमल, अशोक आत्रेय, कृष्णचन्द्र जोशी, सुब्रतो मंडल, वीरेंद्र शर्मा, चन्द्रप्रकाश चौधरी, एकेश्वर हटवाल, हेमंत शेष, हर्ष छाजेड़, अशोक हाजरा, शैलेन्द्र भटनागर, प्रफुल्ल कुमार सिन्हा, राकेश कुमार सिंह, अनुपम भटनागर, सुशील निंबार्क, युगलकिशोर शर्मा, राजेन्द्रपाल सिंह राठौड़, ब्रजसुन्दर शर्मा, शिवकुमार गाँधी, अब्बास अली बाटलीवाला, सी.एस. मेहता, श्याम मालव, चिमन डांगी, दीपक खंडेलवाल, मुकेश शर्मा, कुमार अशोक, ओम चौहान, त्रिलोक श्रीमाली, भंवरसिंह राठौड़, आर.डी.पुरोहित, धर्मेन्द्र राठौड़, डा. अमित राजवंशी, देवेन्द्र कुमार खारोल, अनिल मोहनपुरिया, लोकेश जैन, आशीष श्रंगी, लक्ष्यपाल सिंह, निरंजन कुमार, प्रहलाद शर्मा, प्रमोद सिंह, मदन मीणा, अम्बालाल दमामी, नरेन्द्र अमीन, आनंदीलाल वर्मा, कान्तिचन्द्र भारदवाज ,किशोर सिंह ,कैलाशचंद शर्मा, गौरीशंकर सोनी, सुरेश जोशी, चेतन पाटीदार , तेजसिंह, त्रिलोक श्रीमाली, दीपक भट्ट, फूलचंद वर्मा, बंशीलाल शर्मा, मनीष शर्मा , मोहम्मद सलीम , युगलकिशोर शर्मा, रघुनाथ, राजाराम व्यास, रामानुज पंचोली, रामावतार शर्मा, ललित शर्मा, विजय शर्मा, विनोद कुमार गोस्वामी, विष्णु प्रकाश माली, वीरेंद्र नारायण शर्मा , शिवशंकर शर्मा, सी पी चौधरी, सुधीर वर्मा, सुरेश पाराशर, प्रणय गोस्वामी, प्रेम सिंह चारण, पी.सी. किशन, रूपेश भावसार, किशन मीना आदि के काम भी देखे जाते रहे हैं। इनमें से प्रायः सभी ने समय-समय पर आयोजित समूह प्रदर्शनियों और बहुतों ने अपने एकल चित्र प्रदर्शनों के अलावा विभिन्न कला दीर्घाओं में संकलित अपने कामों के माध्यम से अपनी कलाकृतियों से प्रेक्षकों को परिचित करवाया है। यहाँ स्थानाभाव के कारण इन सबके वैयक्तिक योगदान का विस्तृत विवरण दे पाना कठिन है, पर इन सभी के अपने काम से राज्य का कला क्षितिज किसी न किसी रूप में सम्पन्नतर ही हुआ है!
प्रमुख महिला चित्रकार
दीपिका हाजरा, उषा डी. सिंह, आभा मुर्डिया, मीना बया, संगीता जुनेजा, सपना शर्मा, मंजु शर्मा, रेखा पंचोली, आदि के अलावा कृष्णा महावर, किरण सोनी गुप्ता, ममता चतुर्वेदी, मीनू श्रीवास्तव और जॉली भंडारी, कुछ अन्य प्रमुख महिला-चित्रकार हैं। नीरजा सूद, वीनू कुमार,ऋतु जौहरी,रीता वैश्य, कुक्कू माथुर,शीला शर्मा, मोनिका चौधरी, अर्चना कुलश्रेष्ठ, नीलकमल, शैला शर्मा, पुष्पा भारद्वाज, युगप्रभा, अनुपमा जैन, दक्षा पाराशर, मणि भारती, सुरभि बिरमीवाल, शालू सक्सेना, अर्चना जोशी, ऋचा भारद्वाज, रेखा भटनागर आदि भी कलाकर्म में कभी सक्रिय थीं।
देखने की बात है कि जिस तरह उषा रानी हूजा ने मूर्तिशिल्प के क्षेत्र में ख्याति अर्जित की थी, उतना ही उल्लेखनीय काम राजस्थान में ’माध्यम’ को लेकर कुछ अन्य महिला चित्रकारों ने भी किया है। मंजु मिश्रा ने पेपरमैशी के उपयोग से ग्राम्य-प्रतीकों, लोक कला और अन्य आकृतियों का त्रिआयामी अंकन किया है। वीरबाला भावसार ने नदी की रेत और जया व्हीटन ने थर्मोकोल का रचनाशील उपयोग किया था।
वीरबाला भावसार की कला इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि माध्यम के प्रति एक विशिष्ट लगाव और रचाव इनके यहाँ है। स्मृतियों, भवनों के भग्नावशेष और ग्राम्य-गंध इनके चित्रों में मुखर है। यहां लोक-प्रतीकों को अपेक्षाकृत अलग माध्यम से रूपायित किया गया है। वह लोक और ग्राम्य-कला के मांडनों या अल्पनाओं, गुफाचित्रों की लिपियों और दूसरे आदिवासी प्रतीकों को नदी की रेत और संगमरमर के मिश्रण के सहारे उपजाती हैं। वह आदिवासी अंचल के अनेकानेक बिम्ब रेत के माध्यम से रचती रहीं हैं। *****

Wednesday, November 30, 2011

A Poem

Empty Boats in Yamuna



How many were there - The boats : empty , abandoned and  waiting,

Where did the travelers go who were to ride them on their return

An afternoon was passing through our bodies like a train and there were

A few swifts with colors of sunset glittering in their eyes



There was Glue bursting out of the trunks of trees

Forlorn nests on the branches

There were lonesome,  shriveled  lanes,

A few tattered houses drowned in ennui

melting was a river under their foundation

Since the time immemorial



After their past birth these stairs of Ghat were reborn

as boats in 1987 AD



They habituated in waiting at the banks

For years together they are in meditation : lonely and empty

waiting for the pilgrims

We do not know what they shall become

After the exoneration from the curse and leaving the passengers

Back to the Ghat!



****

Friday, December 18, 2009

ATTENTION PAINTERS





Dear Artist,

I am planning to bring out a special number of our bilingual quarterly art-journal 'Kala-Prayojan'  http://kalaprayojan.blogspot.com/  all known, less-known, unknown,upcoming,budding,aspirant Indian/International Artists (Painters/sculptors) (with their old as well as recent paintings). For this purpose, I am sending you the following questionnaire for consideration and response. Should I hope that you would be kind enough to go through it thoroughly. By replying suitably at your earliest convenience and thus helping our research team to publish significant material about you and your paintings, we sincerely hope to spread the message of global friendship through Art.
Regards,
Hemant Shesh





QUESTIONS FOR ARTISTS





1. Where did your schooling in Art take place? or you have picked up painting on your own. How did you incline towards fine arts?

2. As a student of Art, who were your contemporaries, who later became renowned artists?

3. Who were your teachers during your studies ? Did anyone/some ones did inspire your work at the initial stage as a student artist.

4. What were the major difficulties that you faced during becoming an artist and later while establishing yourself as a visual artist-in your country and then abroad.

5. Can you classify certain important significant landmarks in your long art-journey?

6. Who are the major artists, who have inspired you or your work and why?

7. Your paintings are a blend of inspirations gathered from various sources. Which culture has a greater impact on your art and why?

8. Do you wish to be underlined as a creative artist using 'multi-media' for your various forms of expression. What has to be your central concern when you take up multi-media experimention for your works? What is the significance of being experimental while working multi-media?

10. In many series of paintings some artists have blended the images of the East to those of the West, What should have been the thereof and how it bridges the occidental and oriental sensibilities??

11. Are you aware of the contemporary Art in India? What major difference do you feel between the Indian art scene today as compared to the contemporary art world of West?

12. Taking a global view of modern world-art, how do you rate major Indian artists and their art? Who are the Indian artists whose works you are familiar with?

13. Public-Art as an urbanization trend is picking up gradually in developing countries like India. What should be its aesthetic direction and dimensions? How the modern art can works literate common men's vision towards life and art?

14. What is your assessment about the recent boost in art-market of the world? Has this trend negatively influenced artists or the orientation of contemporary art. Are they becoming more and more 'commercial' insted of being professional?

15. How persons other than art-field have inspired your work and who are the chief personalities of philosophical, intellectual, literary and allied fields who have contributed to the shaping of your creative orientation?

16. What in your opinion is the creative correlation between tradition and modernity? Have some of your works given an evidence of such a co-existence?

17. What is the meaning of being an Indian near you, when for the past so many decades you are staying permanently outside India? Do you sometimes miss India and for what reasons? (This Question is addressed to Non Residential Indian Artists living abroad)

18. What is the latest that you are working on and when is your next solo/group show(s) scheduled and where?

19. Have you to say anything special on governmental patronage of fine arts, especially with reference to art institutions established for protection, Promotion and development of art and artists?

20. Have you to say anything or to show anything significant to your senior/ contemporary/budding / upcoming generation of new artists? please append choisest of your 8 recent works for consideration of publication.

Wednesday, September 23, 2009



किसी रेगिस्तान का एक दिन

Wednesday, February 18, 2009

हेमंत शेष की पुरानी कवितायें












इस स्तम्भ में हेमंत शेष की चुनिन्दा वे पुरानी कवितायें जो हिन्दी की पत्रिकाओं और उनके कविता संग्रहों में प्रकाशित और बहुचर्चित हैं । संचयन : अशोक आत्रेय : अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवादक : कलानाथ शास्त्री, ऐ. राजाराम , जयंत गोस्वामी, आई. के. शर्मा , अंजन सेन, रंजना गुंजन, देंनिअल फिलोद, संस्कृति रानी देसाई, भरत नायक, कृष्णा बसु , समीर तांती , हरिकृष्ण गोस्वामी , नीलिम कुमार , मोहन आलोक, और बहुत से अन्य अनुवादक कवि .



Post Script
Everyday the things are recorded to have gone away.
Barges of moments reach banks and return answered.
Someone somebody ascends the stairs unknown tethered the finger of terror
Everybody the things are recorded to have gone away
Only the leaves and trunks turn pale
The landscapes change color.

The morbid tales are throne up retting shelves of experience.
Doleful stories of life are discarded down from the high opening
That has lost its color.

Like dry and discarded sheaths dates shrink into tropical comers.
And then the boats sink into sands of frivolous shores.
Bewildered insecure eyes in baffled hurry
Shuffle the pages of an old almanac.

Everywhere Every day the things are recorded to have gone away.


Translated by Kalanath Shastry


Diagnosis
Where are the race-course gone?
The man tethered in the stable is crying hoarse.

You shall keep him in check
This time, not by lashes,
But by reins,
(Might does not succeed every time every where
you have learnt it)

Where are the horses gone ?
The man tethered in the stable has started neighing now, tamely,
Say
What are you going to do for him this time ?



Translated by Kalanath Shastry



Salutations to Sun
Certainly
That broken bridge shall somebody repaired.
We shall remember the lost spring.

Where is everything?
What is the future of things in the darkness ?

You shall see ,
You shall see the curtains of mystery rise
The rains of clarity shall wash away
the dust of time settled on things.

You shall see,
You shall see the mist dissolve
and once again the pilgrim will start descending
in the stream of this holy river
for the salutation to the Sun-god.

Translated by Kalanath Shastry


The Sixth Sense
At the same time this train passes every day.

I remember the dreams I had seen once.
Those cruelties, Those affections,
Those examinations I had passed
Unfold like windows
Opening in the wind.

I return to the past years hopping over the platform of age
And find myself before a ticket-window.

Nobody knows of the unknown journey and the destinations unknown
Everything unwritten and complete -fades into the noises.
A blurred fog slithers down the shoulders,
Past beneath the elbows, like a newspaper that has been read.
A long wait stuck to the chin.

"Gather the luggage, We're home…….."
Which always begins in a dream.

At the same time this train passed every day.


Translated by Jayant Goswamy



Self-Contained
Our present
Playing with the fingers of uncertainty
Weaves the yarn of miseries.

All alone lies in the boat of time the paddle of darkness.

Reluctant are rains and clouds
And the loneliness lies on the table.
Bright curtains of seasons fall in the sorrowful air,

We stand speechless ; Mum
Dangling the badges of questions on our chests.

The rain of constraints is stuck around the windows and
Shrinking sunshine over the frigid firmament breaks the stints of magnanimity.

Over the shoulder cascades a stream of light.
Ah….. Down the steps of intimacies
I kiss you

The hunter of time has set out
For the blue woods of the sky
Lest he hunts the Sun Fishes of age filp about.
The first kiss of love nibbles at the lips.

Dated standed in the wild storm like fallen leaves sand prop.
We sob for you in every season
My own perishing awareness
Come
Let us hang it in the poetry
Once again…………….


Translated by Jayant Goswamy



Untitled
Now there is no use feeding milk to your own sleeves.
Snakes have appeared just at a hand shaking distance.
I had said to those aged men
Who had strong belief
In herbal toothpaste and country liquor.
But all of them had forgotten their incantations of sorcery and witch hunting,
Were involved in the hunt of sensational yoga-postures
And there were afloat in the air-
The forecasts of their doom:

And just then
I had seen the Lords of the city
All with old honorifics
In the morning attire ruffled
Caught by Encephalitis.
They were donating their wristwatches:
All baffled and hamstrung.

And I knew that they had all won
Prizes for their exceptional health and punctuality the other day.


Translated by Kalanath Shastry


Forgetfulness
We shall forget the names of many of our classmates.
The faces of relatives.
We will forget those Railway platforms
Where we once descended during our journeys.
We will forget the smell of arboreal world we experienced in the jungles
We will forget the feel of the
We dipped our hands in.

Perhaps we will forget many more things
And this too that we have forgotten everything.

Yet
We will have many things to remember.
But, surely very little, which we can't forget for ever.

We have more to forget in our lives-either a memory of its smell
And preserve
Only our remembrances which we have forgotten


Translated by A. Rajaram and the poet



The Very Same Dream Everyday
We see the same dream every day
That flower are blooming silently
And the spring is descending from the firmament just like dew-drops.
In its utmost sacredness - the fragrance of March is creeping in the foliage
Making us remember those boats -
Fluttering the waves of a river.

Innumerable colors dissolve in the eyes
And we cross over roads, Ghats and grass-lands.

We find the trees loaded with fruits.
The honey combs on their branches are enlarging day-by-day.
Cheerful women returning home after shopping.
The jungles filled with sun and granaries with corn.
All the roads of the city, ending of magnificent Dancing Hall.

Passing through the scenes one-by-one
We look at them; How charming the world
But even in the dream we pretty well know that the dream is going on.
And that dreams alone can't make the world pleasant and worth living

Friends what have you to say about dreams ?


Translated by the poet

The pretty Woman
You would repent
That you could not kiss her.

Her being utterly beautiful is the first condition for an imaginary kiss.

You are worried that kissing her is not that simple.

Between a kiss and your agony
There exists-
A beautiful woman
Unconcerned to both :
Your despair, and her own majestic chastity!

The Scream
The world is narrow
And a silence clings around the trees.
What the future shall be like
No one knows…………

Where shall I lay my hands with which I would like to write poetry?
How that child shall recognize her mother in pitch darkness?

We shall stand sober and decorated in a celebration of
White collared guys

But who,
Who shall suppress a scream that would blow out
from the deepest core of some one's heart
against the entirely false decorum……
and shall cross all limits of timid composer.

What should poets do, with a word like 'love'…..?
The word called 'love' has been reduced to a very low profile,
And it will continue to be so, The bollywood calls it 'pyaar'.

Our cheap novelists have further degenerated it,
With the result
even lovers these days, avoid being called 'lovers',

But look at the fun-
We often have to use this word
And that too, with all earnest sincerity

And then, we are not bothered about
But with its ironical synonym; at peculiar junctures
Looking just like lovers
Frightening with 'pyaar' and
Remaining poets from inside………

On not remaining, as before
I do not know you Apoorva
But know you since many many years,
Where the words untold are concealed within the words uttered,
This mute conversation begins

Just now
A tiny flame has flared within us
Unknown is its color, unparallel.
Rest every thing else is quite the same-
City, roads, Wind, Sunshine, Daytime.

Your arrival like a cool shadow in my scorching desert loneliness
And your returning back; silently

After you have left
I am not the same as I was,

And
probably within you
I too may have left
My equally vociferous portion।












ASHUDHHA-SAARANG







1.
A colorful candle has just lit inside me
And the wax of words has started melting
Thus after many days-
Opened the window of poetry……

2.
The knife of time cuts the apple of our world
We cheer in the nourishing gloom, approaching

Both are synonyms;
Health and disease, in front of this knife
In the world being pierced

3.
A house locked
Like a world, shut.
Behind the doors
The chatting of women
And their sobbing, too.

4.
The meanings of flowers shall change with age,
Neither then there shall be no repent nor a desire
That we pluck happiness from the stem
And instantly forget it all

5.
Ah…..your teeth that open up while you laugh show
Your attitude towards the world that you know how to laugh
But this much only.
Not this at all
That what is their role
When you just do not laugh but feel ashamed

6.
you are almightily in a dream
you are.
Provided really sleeping


7.
we ourselves could turn into a hill
while gazing at the hill.
But there are lot many lies in the poetry.



8.
tamed horses are just ordinary despite being fabulous.
As they are pets and carry over someone's burden.
Lifting burden and being fabulous are two different connotations.
The greatness has nothing to do with the second.

9-
you are frightened
while entering the room that the room was there
you are frightened too while you leave that the the room was there.
The fear is not the room
Nor the room is the fear
The fear is fear and the room is room
Whether you enter or exit.

10.
In the kitchen of life
Something is burning since long
And the nose of is inert in the cold of scarcities.

11.

People these days do not watch and appreciate
the colorful feathers of birds
Just pluck them
In order to sell coats on exorbitant prices

12.
The unarmed bird is singing on a branch of a tree
The shoe of that wounded soldier may be visible to her from there
Who shall commit suicide as soon as he recovers
Under this very tree
Before the next war.

13.

Just believe me; This is the demand of sociality
Please do not shave now
(One should not look smart and cheerful while accompanying a pyre)


14.


Brahma said in dream : Look only in Purans - shall you find chastity
But sorry-
There are numerous proof mistake in print these days.


15.

Just remember
While crying
That unless your cry doesn't reach appropriate ears
It would remain only an expression of fear
And
Not an appeal for help



16.

The tree is envy
The table has no worries



17.

The baby lisps and weeps
As some poets jabber under the fever of poetry

Weeping and writing poetry generally leave the same impression
If you want to become the father of the baby
Or the reader of a mediocre poetry




18.


Now the new mother is not feeling uncomfortable in the kitchen
Scarcity becomes life style after it becomes a habit.






19.


O God who shall give me a pardon of my wrongdoing?
You, or me, myself?
I never saluted you while passing with my beloved through the garden
You were conspicuous in your absence in the examination hall
Just before question paper was to be disbursed.

God in helplessness and the sweetheart in youth-
Both equal.

20.


People do not want to carry wallets in their pockets these days.
It is not merely a co-incidence but
A comment on the present times


21.

The pendulum of morning news is oscillating on the front page
Set your wristwatch and feel happy: 8.15 AM exactly like yesterday
Despite so many ill happening


22.

Butterflies have no teeth
Absence of something is essential for beauty


23.


Passing of time:
Raga jaijaiwanti on Ramnayan's sarangi
gradually fading out…


24.


It is the munificence of trees
that vultures are waiting on their branches, for a corpse
But still they are green.

Not for the trees, but for the jubilance of vultures
These times are conducive.

25.


The incidents are often remembered.
The rooms are changed.
Wrinkles of cloths that shrink in a dream.
Sympathies entangled in the memory.
I smell the aroma of 'baghar' in the kitchen every morning
Hear my daughter's cry,
No. The world today is certainly,
certainly different than yesterday it was.


26.

I have to travel.
Arrange my luggage in order.
Buy a valid ticket and then board the right train.
I have to take care of my suitcase hiding it from thieves and reveres.
Descend at the right platform.
Reasonable fare is to be given to the Riksha-Puller.
Reach at the right destination.
Remember that the address is safe and in my which pocket?

And this is also to be remembered
that what is really required to remember everything.



27.

I too can beat my childhood-teacher
With the same cruelty

Ah ! the poetry provides fantastic opportunities.



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Extracted from "Ashudhh Sarang" Hemant Shesh's collection of poems published in 1988
Translation by Dr. Sunayna Bhattacharya and Dr. Bondita Sengupta

Tuesday, February 10, 2009





काला ही सब रंगों की मां है !!!


विद्यासागर उपाध्याय की कला पर केन्द्रित



विद्यासागर उपाध्याय ( जन्म: 1948 ग्राम परतापुर ज़िला बांसवाड़ा ) की गिनती देश के प्रमुख प्रतिभाशाली आधुनिक चित्रकारों में महज़ इसलिए नहीं की जाती कि उन की रचनाओं के अनेकानेक प्रदर्शन हो चुके हैं, इन की कृतियां ‘भारत त्रिनाले’ सहित देश विदेश की कई प्रतिष्ठित कला दीर्घाओं में जगह बना चुकी हैं और हर साल बनाती आ रही हैं, अपितु पिछले कुछ बरसों में वह अपने काम को और आगे ले जाते उसे परिवर्तित और परिवर्धित करते एक सजग समझदार कलाकर्मी के तौर पर प्रेक्षकों और समीक्षकों का ध्यान बराबर खींचते आ रहे हैं। अब छूट चुकी सरकारी नौकरी के बावजूद वह सचमुच एक ‘नियमित’ चित्रकार बने रहे हैं : जयपुर के राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स में केवल ग्राफिक कला का अध्यापक बन कर गुमनामी में न खो गए चित्रकार। स्वभाव से वह बहुत मेहनती हैं और उन की कृतियां भी उन के इसी गुण की ताईद सी करती हैं जिन में चित्रकार की माध्यमगत लगन साफ देखी जा सकती है।वे अनायास ‘बन’ गई नहीं ‘बनाई’ गई कृतियां हैं। पिछले कई बरसों से वह ज्यादातर एक्रेलिक में ही काम करते आ रहे हैं क्यों कि “यह तैलरंगों की बजाय ‘जल्दी सूखने वाला’ माध्यम तो है ही इस में विषयवस्तु के हित में ‘ओपेक’ या पारदर्शी प्रभाव पैदा करना भी अपेक्षाकृत आसान है।” उपाध्याय कहते हैं । प्रिन्ट बनाना और लगातार रेखांकन भी जैसे स्वभाव से इन के कलाकार के साथ जुडे़ हैं। चौथाई सदी से भी ज्यादा अरसे से अगर वह प्रकृति के अनगिनत रूपों में से कुछ को बराबर केन्द्रीय जगह दिए चले जा रहे हैं तो यह तथ्य इसी का तो सूचक है न कि प्रकृति के विविध रूपाकारों को ले कर इन के मन मानस का अनुराग गहरा है। “ इस जन्म में तो प्रकृति के शिकंजे से छूटना नामुमकिन है।” वह कुछ कुछ अतिशयोक्तिपूर्वक कहते भी हैं। इन के नये पुराने चित्रों में हम ज्यामिति और तंत्र के परिचित प्रतीक़ जहाज़ जैसी आकृतियां पहाडों के जिस्म़ उड़ते अमूर्त पक्षी आकाऱ तैरते हुए शिलाखंड़ मछलियां रेत़ फूल़ पानी के बिम्ब़ उन के प्रतिबिम्ब़ बादल़ चट्टानें और मानवाकृतियां और पानी की लहरों सब की मिली जुली सी याद कर सकते हैं। पर याद रहे : सिर्फ याद ही।इन में से एक भी चीज विद्यासागर उपाध्याय की कला में सीधे सपाट ढंग से नमूदार नहीं होती। इन के सिर्फ उतने संकेत ही हमें दिखते हैं जो चित्र संरचना के लिए अनिवार्य हैं : एक चित्र प्रेरणा या प्रस्थान बिन्दु की तरह। ज्यामिति और तंत्र के इन के प्रारंभिक चित्र दौर में हमने सन सत्तर के दशक में विद्यासागर उपाध्याय की पहले पहल पहचाऩ केवल पैंसिल ही में काम करने वाले एक सिद्धहस्त अधुनातन कलाकर्मी के रूप में की थी। कुछ कर दिखाने को आतुर एक विनम्र देशज सा चित्रकाऱ जिस की कला में तब शायद मेवाड़ के अंचल के भू दृश्य ही प्रमुख थे : पहाड़ चट्टानें अंधकाऱ जंगल पेड़ बेलें और पानी। वे एक किस्म की बहुत मुखर आदिम स्वाधीनता और स्वायत्तता के बल पर ग्रेफाइट में बनाए गए अनगिनत सैरै थे : स्याह सफेद ।अमूर्त और आनन्ददायी ।ज्यामिति के प्रचुर उपयोग के बावजूद उन का उन्मुक्त और खुला संसार आदिवासी अंचल बांसवाड़ा की अछूती ताज़गी और अरावली चट्टानेां के ‘अक्षत कौमार्य’ की याद जगाता था। तब कहीं उन पर तंत्रकला का प्रभाव भी गहरा था। बाद में अपना गांव घर छोड़ कर जयपुर में बस गए विद्यासागर उपाध्याय की कला ने बार बार बहुत से रोचक मोड़ लिए हैं। “राजसमंद जिले के एक बेहद अनजाने छोटे से गांव में जहां मैं एक सरकारी स्कूल में ड्राइंग टीचर था़ न तो कैनवास ही मिलते थे़ न रंग। अभाव का जीवन था। उन दिनेां महंगे साजोसामान के लिए पर्याप्त पैसे भी तो नहीं थे इसलिए कागज़ पर महज पैंसिल से काम करना मेरी मजबूरी थी।” विद्यासागर उपाध्याय पुराने कठिन दिन याद करते कहते हैं। “पर इसी 3 बी के ग्रेफाइट ने मुझे मेरी सच्ची पहचान दी। आज भी अगर कोई मुझ से मेरे सब से प्रिय माध्यम के बारे में पूछे तो निस्संकोच मैं पैंसिल का ही नाम लूंगा। फिर एक्रेलिक का और फिर तीसरे नम्बर पर लिथोग्राफ़ी का।” काले सफेद को ले कर विद्यासागर का अपना एक चिन्तन है। उन्होंने बरसों तक इसी पर हाथ आज़माया है। वह हिन्दुस्तान के ऐसे इने गिने चित्रकारों में अग्रगण्य हैं जिन्हें स्याह सफेद पर उतनी महारथ हासिल हो।भले ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में काम करना विद्यासागर जैसों की मजबूरी शायद कभी रही हो रचनात्मक तौर पर विद्यासागर का मानना है कि “रंग एक चुनौती हैं। दुनिया के सारे रंग सौन्दर्याभिव्यक्ति में सहायक हैं पर काला रंग तो जैसे सब रंगों की मां है। आम तौर पर काला परम्परागत रूप से भारत में जिन मनोभावों से सम्बद्ध किया जाता रहा है़ उस से भिन्न अपने चित्रों में मैंने काले रंग को वस्तु सौन्दर्य की पराकाष्ठा दर्शाने वाले रंग के तौर पर ही काम में लिया है। काला शान्त और जितना गम्भीर रंग है़ उस की चित्र में उपस्थिति उतनी ही महत्वपूर्ण भी। आपने भी तो नोट किया होगा सफेद या कि दूसरे दूसरे किन्हीं और रंगों से इस की संगति या सन्तुलन खुद अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता प्रदर्शित करता है।” विद्यासागर का विचार है।



पर यह देखना रोचक है कि बरसों स्याह सफेद में काम करने के बाद जब वह रंगों को काम लेने लगे तो एकाएक प्राय: सारे ही इन के यहां कुछ इस तरह दिखने लगे जैसे कोई थमा हुआ बांध सा टूटा हो। यहां तक कि सामान्यत: जिन रंगों का इस्तेमाल प्राय:कई चित्रकार लगभग नहीं करते या संकोचपूर्वक कभी कभार ही करते हैं : रजत़ गुलाबी़ हरे़ नींबुआ रंगों के कई कई मनमोहक शेड्स और इनकी रंगतें। मुझे याद है़ उन के बहुत से या कुछ प्रशंसकों को तब यह बदलाव बहुत प्रीतिकर नहीं लगा था। पर संयोग से बहुत जल्दी विद्यासागर उपाध्याय के नए कामों ने उन्हें अपनी राय संशोधित करने पर बाध्य कर दिया और काले सफेद ही की तरह उन की चित्र संचेतना में लगभग प्रयासहीन ढंग से रंग भी कुछ ऐसे घुल मिल गये जैसे वे चित्रकार की प्राथमिकता से परे कभी थे ही नहीं। “...........टाइप होना मुझे पसन्द नहीं है और अगर कोई है तो ‘एब्सट्रेक्ट एक्सप्रैशन ’ ही मेरा टाइप है :।मैं जो चीज़ गहराई से अनुभव करता हूं उसे पूरी तरह यथासंभव आखिरी हद तक अपनी रचनाओं में उतारना और अनुभव करना चाहता हूं।” उनका कहना है। आकस्मिक नहीं है कि इन की अनेक चित्र श्रंखलाओं में पुरानी कला श्रंखलाओं की स्मृतियां भी आप देख पा सकते हैं। यह निस्संदेह एक गुण है।खुद अपनी परम्परा में नया करते भी उस का अनुरक्षण :स्मृति में होना ही मनुष्यत्व में होना है। विद्यासागर के चित्रों में आए परिवर्तनों को या उनकी चित्रभाषा के बदलावों को इस आलोक में देखना उनकी रचनात्मक ‘अरूढ़त़ा’ का संभवत: सही मूल्यांकन हो। अगर उनकी चित्रभाषा स्वाभाविक तौर पर परिवर्तनगामी है़ तो उन के कैनवासों का आकार प्रकार और चित्र प्रस्तुति तौर तरीका भी यदा कदा प्रयोगशील। आयताकार वगार्कार छोटे और बडे़ कैनवासों को वह काम लेते हैं : पर कभी कभी गोल कभी त्रिकोणात्मक कैनवासों तक को भी। स्वाभाविक तौर पर वह चित्र प्रस्तुति में ज्यादा प्रयोगशील तब भी होते हैं जब अपने घर में यानि जयपुर में कोई प्रदर्शनी करते हैं। वर्ष 2005 में जयपुर के जवाहर कला केन्द्र की चित्रदीर्घा में प्रदर्शित उनके सारे कैनवास वृत्ताकार थे। “छोटे कैनवास आकार की अपनी सीमाएं हैं । अगर मुझे प्रकृति के विशाल और उद्दाम रूपों को बोल्ड ढंग से चित्रित करने करना है तो बडे़ आकार के कैनवास ही चाहिएं।” इन के दृश्यचित्र पूरी तरह अमूर्त होते हुए भी बेहद आकर्षक हैं : एक खास तरह की आधुनिकता के सौन्दर्य से मंडित। हालांकि कई दफा़ वे महज़ खूबसूरत ‘कंपोजीशन’ भर दिखते हैं। या कभी कभार व्यावसायिकता के दुनियादार तकाजों से घिरे चित्र। इन के यहां कैनवास की सफेद सतह को अवकाश के बतौर छोड़ने और बरतने का विवेक तो स्पष्ट ही है।कुछ एक बार वह लयात्मक या जैविकीय से दिखलाई पड़ने वाले रूपाकारों को एक खास तरह के ‘जमाव’ के द्वारा अभिव्यक्त करने की इच्छा में डूबे जान पड़ते हैं। नदी किनारे के गोलाकार पत्थरों आकाश के धब्बों और पठारों के सुदूर बिम्बों को बार बार पकड़ना चाहती इनकी कलाकृतियां हमें असल कथ्य से इतर भी पृष्ठभूमि के आलोक और धुंधलकों का लगातार परिचय देतीं हैं।
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जो चीजें मूलत: फलक पर आई हैं उन की भूमिका के बतौर विद्यासागर उन की पृष्ठभूमि के अंकन में भी ख्चिशील हैं और शायद असल में यही इन के अमूतढ दृश्यांकनों की चैत्रिक ‘सुन्दरता’ का रहस्य है। कभी अपनी रचना की अंदरूनी मांग पर और कभी प्रेक्षक की प्रफुल्लता के लिए विद्यासागर अपने चित्रों और रेखांकनों में ‘टैक्सचर’ उकेरने का काम करते हैं। तैलचित्रों में वह कैनवास के अपने‘ टैक्सचर’ का भी यथा जरूरत उपयोग कर लेते हैं पर अच्छी बात है कि चित्रों का आन्तरिक अनुशासन ये ‘ टैक्सचर’ कभी भी भंग नहीं करते।वे जहां भी आते हैं बहुत जरूरी अंशों की शकलों में शिष्टतापूर्वक । वे ‘ टैक्सचर’ इतने वाचाल नहीं कि मूल कथ्य से ध्यान हटा कर वे हमें अपने ‘होने’ में ही भटका दें। “अगर चित्र एक सम्पूर्ण ‘डिजा़इन’ भी है तो सतह के वैविध्य के हित में पेन्टिंग का हर हिस्सा महत्वपूर्ण है।उस के सौन्दर्य का विस्तार करने की दृष्टि से टैक्सचर का अपना महत्व है। सरफेस और मैटीरियल दोनेां की अपनी सीमाएं है़ं परन्तु टैक्सचर दोनों ही सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते हैं। “एक्सप्लोरेशन’ खुद कलाकार पर निर्भर है।“ विद्यासागर का मानना है।


यह देखना आश्वस्तिदायक है कि कला की राजनीति में भी गहरी सजगता रखने या चित्रकार के रूप में उन तक आई सफलता ने खुद विद्यासागर को एक दोस्त या मनुष्य के तौर पर या उन की कला को अब तक भी नष्ट नहीं किया है और वह अपनी प्रतिभा और कौशल का नियमित उपयोग करते हुए इधर कुछ ज्यादा चचिर्त अपने चित्रकार बेटे चिन्तन उपाध्याय की तरह हमारे समय के नए कला परिदृश्य को सम्पन्नतर करने में गम्भीरता से जुटे हुए हैं।


हेमन्त शेष

Monday, February 9, 2009

Poetry that distilled emotion


"VRIKSHON KE SWAPNA"
COVER DRAWING : VIDYASAGAR UPADHAYA








on 2/10/2001 Renowned Critic and Columnist DURGA PRASAD AGRAWAL wrote in www.outlookindia.com
"...There are so many good and great poets in Hindi today, that it will take at least a full issue of 'Outlook' to list allo of them, but here I would like to mention a few of them : Rajesh Joshi, Arun Kamal,Rituraaj, Hemant Shesh, Nand Bhardwaj,Harish Bhadani, etc."









SOME OF THE BOOK COVERS DONE BY POET HIMSELF


Tuesday, February 3, 2009

Hemant Shesh's Poetry











Poems published in 'Kalpana', 'Poorvagrah', 'Naya Gyanodaya', 'Lahar', 'Samkaleen Bhartiya Sahitya' and other magazines:


A POET DEPARTS
And Other Poems translated from Hindi/

And ultimately a poet unsung
Leaves the world silently
And shatters nothing, anywhere!

The world snoozes in slumber and wakes up with eternal ennui
Trudging on beaten paths planets and the Universes revolve!
Waves brim all seas
Flora breed on the plateaus...and thus the scenes grow old & older.

A mute scream like a lump
Plugs into throats
When sons aspiring to prosper
Leave our homes without bidding any one a good-bye and
Daughters falling in love, just fleet away
Thousands and thousands board trains to earn their daily bread
Buses carrying pilgrims collide and crash.

New born open their eyes in an unrelenting commotion
Ultimately the dead bodied are made to rest on the chilled floors

The scenes: soaked in ample of acid and affluence of salt
Strangulate inside the poet
Like a fish breathing last strangles in the net unknown

Catalogs of thousands of strange sorrows
Threadbare flags of feeble hopes
Helplessness mirrored in millions of images
A fathomless expanse of violet pathos

Within his nerves flows a counterworld:
A wishful thinking
-Of finding a world full of love, set in order!

He was a speechless bird
A mute butterfly
A dumb honeybee
Away from his abode he is missing from a life that was

Once again
Staying far far from the clutches of corpse
The poet would once again feel
The secret tears of scenes peeled off
And
The world shall continue to nap
And wake up as ever before!



****
Translated by the poet





THE DECLINING MINAR



Our home was a sagging Minar
Where aspirations lived like cloths, worn,
The weathers wavering often visited it
As our bodies were just spaces to rest?
For years together the flowers would never know
The art of blooming
Weeping could be set off, any moment, anytime
Sometimes the Dal tasted bitterly salty
But hardly anyone would go on a long journey!

Letters dropped by relatives often came
The ritual of STD lessened their frequency
We bid farewell in youth, to some of our friends, who demised
Some dearly loved ones never turned up again once gone.
Wives and children bought expensive stuff only in the Ads
And looked contented.
Anarchy and Scarcities became natural, just as breathing!

Our home was ours
And we were not the inhabitants of an unknown planet- aliens,
We had full poise and pride about it
Like anyone has, or one ought to have!

Earlier this Minar used to quaver a bit
We were unconscious a little, then almost infatuated considered it as distinctive

But out of the blue it trembled
And now even with a slightest blow of wind
This could collapse off, to the earth.

But, you must ponder it over too-
If so happens some fateful day,
Responsible for it shall be, who?

***
The mystique of Music

D.C. Sharma*
(The learned author recently passed away at 74)

Shakespeare's appreciation of music as the food of love and his invocation to give excesses of it falls short of stirring the reader. Music merits a better deal than merely being fodder to love. Read portrayal of 'Savitri' as conceived by Aurbindo, says he :

O strong forerunner, I have heard thy cry.
One shall descend and break the iron law,
Change Nature's doom by the lone Spirit's power
A limitless Mind that can contain the world.
A sweet and violent heart of ardent calms
Moved by the passion of the Gods shall come
All mights and greatness shall join in her,
Beauty shall walk celestial on the earth,
Delight shall sleep in the cloud-net of her hair
and in her body as on his homing tree
Immortal Love shall beat his glorious wings
Music of griefless things shall weave her charm
The harps of the Perfect shall attune her voice,
The streams of Heaven shall murmur in her laugh,
Her lips shall be the honeycombs of God,
Her limbs his golden jars of ecstasy.


Music is a serious matter. It is the fulcrum balancing life and death. It is the germ of creation. It is the 'Naad-Brahma' of the Vedas. It is the blossoming event of human psyche. It is the sub-terrainian passage to 'Samaadhi'. Else how would the world have been ensured of it in divine madness?
The Greek concept of the music of spheres is not a fancy. It is an endorsement of the store set it by Indians.
Be it admitted that it is in India that due tribute has been awarded to Music. There are legends galore to substantiate it. More than legends, the legendary characters whom this supreme genre of Art blessed glorify the edifice like great frescoes. Our land is fertile in this respect. Swami Haridas, Pandit Tansen, Ustads- Allauddin Khan, Faiyyaz Khan, Bade Ghulam Ali, Pt. Omkar Nath Thakur, Amir Khan and Ali Akbar, beside many others were luminary stars who illuminated the firmament.
It is the note heard a like by the kings and the commoners, wafted over the high seas (Keats verifies) for one note, tuned to the proper 'Shruti', man cringes and fawns at the feet of Minerva.
Such was the note that transported Yahudi Menuhin when he heard Ustad Amir Khan to seventh heaven. That is what transpired when the author heard Darbari sung by
Amir Khan at Jodhpur in January 1960 (Described in an article 'Reliving An Aesthetic Experience'published in Kala-Prayojana- the multi-arts literary journal being edited by Hemant Shesh for the West Zone Cultural Center, Udaipur, India ).
Pandit Omkar Nath Thakur sang 'Mishra-Kafi' at the zoo of Lahore in early 40s and the lion in the cage swung his head so long as the maestro sang.
Not only Homo Sapiens but the whole kingdom of animals starves for music.
Satyanarayan, the violinist of A.I.R, Jaipur saw dozen serpents listening to the Sarod playing of 'Vageshri' by Ustad Alauddin Khan of Meyhar at 2 AM being disturbed by the sudden arrival of the maestro pupil, they slithered away.
Satish Sharma, Delhi guitarist in classical music was at Ramgarh, Nainital hills, when he was accompanied with subdued voice by a small black bird, perched upon a tree at dawn when the maestro was playing a morning raga. The shifting of octaves followed with precision by the dove.
A couple of centuries back, at Jaipur, a few horses were starved for three days to measure the impact of classical music. The nosebags were hung round the heads but the horses spared to move lips so long as the singer performed.
Pt. Tejpal Singh and Dr. Prerna Arora, biographers of Ustad Amir Khan mention how the lights dimmed when Ustad opened his note. Another time, Ustad Vilayat Khan was anguished on hearing Ustad Amir Khan. His observation was that such transcendental notes are only angelic and don't augur well for the longevity of maestro.

The author heard raga 'Jhinjhoti' sung by a Sindhi gentleman Brahmanand Goswami, a teacher residing at 'Heeda Kee Mori' in Jaipur's walled city: 'Bansuri Kaun Guman Bhari'. The notes made way to my bone marrow and I took a full week in regaining my usual frame of mind. This haunting quality is the ambrosia that music awards.
Albert Einstein with his visionary character could not have ignored music. His mastery over Piano/ violin indicates how logical Physics and musical Meta-Physics have one root.
Music liquefies our psyche and awards it the desired shape. One is prone to the address to the musician; " How be it that you imperceptibly extend thy empire? How be it that you can dissolve my psyche by one cadence. You glide over hills and dales, wafted over feathers, and I am not my true self any more!"
George Bernard Shaw says that it is on paper that man achieved perfection. However, one has to substitute ' musical-note' in place of paper. Melody, like a gas-filled balloon, rises up to transcend the horizon. In a nut-shell, we find the true, the good, and the beautiful. This is witnessed only in music i.e. classical music!


A Vast Tradition

Classical music prides over a truly elaborate tradition which, at times, seems to be ritualistic. Every note or 'swara" has three dozens of 'Shrutis'. There are notes that are forbidden in a raga. Then above all, there happen to be prescribed parts of the day, especially in North Indian classical music, when particular 'Raagas' are to be sung or performed. A prince from Madhya Pradesh forced a singer to sing 'Kalingadaa' a Raag of predawn hours one evening and the singer went mad.
'Aalaap', 'Vilambit' (a slow tempo) and 'Drut' (fast tempo) is an established order that human sensibility accepts. 'Taraanaa' is not a hoary tradition but it has proved its worth and serves as a crowning glory. The fast tempo repetition stirs the soul right up to the roots of the listener.
Aalaap dwells upon the substratum of all sounds- 'Aa'-The singer fondles the notes as Yashoda fondled child Krishna. However, the destiny of 'Aalaap' lies in 'Vilambit' and 'Drut'. 'Taraanaa' is said to originate with Tansen, the illustrious vocalist of Akbar the great. Taraanaa is certainly the acme of melody. The one who conceived it deserves accolade. It is the super-most device to thrill to audience.

Paintings of Raagas.

Synthesis is a highly respected term in English poetics and aesthetics. The subject of a sense is perceived through another sense. You may hear through eyes or see through ears. Raaga-Raagini painting tradition is a genre of its own kind. Not much is known as to the origin of the genre. Why is a melody to be visually perceived ? There are 'Raaga"s visual presentations from all parts of India. More so in the Himalayan mountainous tract. It can be a couple's dalliance or a plain landscape. Gods are also the subject of this mode of painting.
The genre calls for a serious examination at the hands of competent thinkers*.
If repetition is permissible, we may avert to the seriousness of classical music. We have to remind ourselves of this rare achievement. Evidently, there is a dilly-dallying with classical music, especially at the hands of A.I.R. They have started marketing the old records. The frequency of concerts is low. Hindustani music is becoming a back-bencher. We are negligent towards our musical heritage. Performance before distinguished audience is much less frequent. Let us avert to this treasure of ours without delay.

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*Hemant Shesh's Note: A great deal of research has gone into this subject and it is still being perused vigorously. For further studies on this subject, suggested reading- "Raag Mala Painting" by Clause Ebb ling. A Garland of Melodies or Ragamala may seem a symbolic but too abstract a concept to be pictorially depicted, but one has to only witness the magic of Ragamala paintings to change one's mind.
The rich tradition of Indian Classical music is structured on the foundation of ragas. A raga is a melodic mode, which literally means ‘to color'. It is believed that these melodies are capable of producing a pleasant sensation, mood or an emotion in the listener. Some Hindustani (North Indian) ragas are prescribed a time of day or a season.
The 'Sangeeta Ratnakara', an important treatise of the 12th century A.D. for the first time mentions the presiding deity of each raga associating them with certain Gods and Goddesses. The 'Sadhakas' (practitioners) decided to capture and comprehend the divine qualities of the ragas and these paintings are the results of that very endeavor. There are six principal ragas - Bhairava, Deepak, Sri, Malkaunsa, Megha and Hindola and these are meant to be sung during the six seasons of the year; summer, monsoon, autumn, early winter, winter and spring. There are 'Raag-putras', 'Up-ragas', and various Raginis that have been classified by Hanumat, Matang and others and symbolically painted in different schools of Indian Art. Apart from seasons the ragas are also related to different parts of the day; dawn, morning, afternoon, evening, night and midnight. During the monsoon, for example, many of the Malhar group of ragas-associated with the monsoon-are performed. However these prescriptions are not strictly followed. There has also been a growing tendency over the last century for North Indian musicians to adopt South Indian Ragas. These do not come with any particular time attached to them. In Karnataka Classical Music there are no such compartments .The result of these various influences is that there is increasing flexibility as to when ragas may be performed These melodies were personified in vivid verbal imagery by Indian musicologists of the late mediaeval period, which provided the source of the Ragamala illustrations.Under the patronage of the aristocracy, artists explored in great depth the relationship that governs sound and sentiment and the Ragamala art form soon became a dynamic, vibrant movement, making music and dance the subject of art through colour and mood. The earliest Ragamala paintings are from the Deccan and were probably painted for Ibrahim Adil Shah 11 of Bijapur, who was an authority on painting and a fine artist and illuminator himself.
It is quite interesting to note that in the entire Kishangarh school of miniature paintings, not a single set of Raagmaala has been painted.

Would someone like to explain the reasons thereof?